उसने कामवाली को जरा-सा जोर से क्या डांट दिया, पति और बेटे दोनों ने ये कहकर अयोग्य घोषित कर दिया कि उसकी नाहक ही परेशान होने उम्र नहीं है। परिवार के दबाव में स्टोर की चाबी बहू को सौपते हुए उसे लगा था जैसे उसके किचन नाम के किले पर किसी ने सेंधमारी कर ली हो। वह सोच में डूबी थी कि अचानक बहू के चिल्लाने की आवाज सुनकर बोली-
“अरे बहू सुबह सुबह क्यों डांट रही है बच्चे को, अब एक दिन स्कूल नहीं जाएगा तो कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा।” दादी की शह पाकर बच्चा दादी के साथ ही लग लिया। पूरा दिन दादी के साथ ही रहा। बहू रात के भोजन के बाद बरतन समेटकर बच्चे को लेने पहुंची। “बहू अब सोते में मत ले जाओ..आज ये मेरे पास ही सोने की जिद कर रहा था इसलिए यही सुला लिया।”
बहू मन मसोसकर बच्चे की चिंता के साथ-साथ इस चिंता में चली जा रही थी कि खुद उसे नींद आएगी कि नहीं। आखिर छः सालों में पहली बार बच्चे के बगैर सोना था। बहू को चुपचाप जाते हुए देखकर, उसके चेहरे पर एक स्मित रेखा खींच आई। जैसे उसने भी दुश्मन के किले पर फतह हासिल कर ली हो।
-----------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
------------------------------------------------------------
Comment
आदरणीय रवि जी, लघुकथा पर आपकी उपस्थिति से मेरा मान बढ़ गया.
लघुकथा का कथानक एक सुबह से रात तक एक पूरे दिन का है जिसमे वह सुबह उठती है और कल उसके विशेषाधिकार छीन जाने की घटना पर सोचती है तभी बहू द्वारा बच्चे को डाटने की आवाज पर बच्चे का पक्ष लेती है. और पूरा दिन गुजरता है और रात की घटना. इस लिहाज से कालखंड पूरे एक दिन का है जो शायद लघुकथा के लिहाज़ से बड़ा है. घटनाएं अलग अलग काल खंड में घट रही है. अब इस दिशा में विचार कर लघुकथा पर पुनः विचार करता हूँ. मार्गदर्शन के लिए आभार ... बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय मिथिलेश वामनकर भाई जी, एक साथ इतनी सारी घटनाओं की वजह से लघुकथा का तानाबाना उलझ कर रह गया। /आज की सुबह उसे बहुत भारी लग रही थी।/ /वो रात बहुत भारी थी उसके लिए।/ लघुकथा का दो दिनों में विस्तार होना कालखंड का अतिक्रमण कर रहा है। सादर
आदरणीय ओमप्रकाश जी, लघुकथा के मुखर अनुमोदन और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार
आदरणीय विनय जी, लघुकथा के मुखर अनुमोदन और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार
आदरणीय कृष्ण भाई जी, लघुकथा के मुखर अनुमोदन और सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार
आ मिथिलेश जी आप की लघुकथा वास्तव में जोरदार है. जैसे बच्चा भी अपनी जित मना रहा हो. बधाई आप को .
बहुत बारीक पहलू निकाला आपने मानव स्वभाव का , सुन्दर लघुकथा | बधाई आदरणीय मिथिलेश जी.
आदरणीया अर्चना जी, लघुकथा के मर्म पर सार्थक प्रतिक्रिया और अनुमोदन के लिए आपका हार्दिक आभार
आदरणीया डॉ नीरज शर्मा जी, लघुकथा के मर्म पर अनुमोदन के लिए आपका हार्दिक आभार
आदरणीया सविता जी, लघुकथा के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin.
Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online