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लघु कविताएँ // रवि प्रकाश

विरह
मैं तो गाढ़े अँधियारे की
पत्थर जैसी छाती पर
उँगली से नाम तुम्हारा
लिख कर सो जाता हूँ,
क्या तुम भी यूँ ही जीती हो?
॰॰
दो नैन
कितनी सीधी है नैनों की बोली!
अनपढ़ होता तो भी पढ़ लेता
हर अक्षर हमजोली!
॰॰
उदासी
ये भीनी-भीनी,नर्म उदासी
किसी ताल सी ठहरी है
कँकर मत फेंको!
॰॰
चाह
मैं चाहता हूँ-
हम साथ चलें कोसों
फिर सहसा पूछें इक-दूजे से-
"तुम थक तो नहीं गए?"
॰॰
टूटन
ये टूटन ही सीधा रखती है
मेरुदण्ड मेरा,
मैं नहीं चाहता
कि तुम दुबारा मिलो
और सब कुछ सही हो जाए।
॰॰
परिभाषा
ये परिभाषा युगों पुरानी लगती है
कि प्यार कोई आवाज़ नहीं,
अल्फ़ाज़ नहीं
एक ही सपना है
दो जोड़ी आँखों में।
-मौलिक एवं अप्रकाशित।
-18.07.2015

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Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2015 at 11:43pm

क्षणिकाओं से मन प्रसन्न हुआ, भाई रवि प्रकाशजी. हार्दिक शुभकामनाएँ. 

Comment by Ravi Prakash on August 4, 2015 at 10:52pm
धन्यवाद मनोज जी।
Comment by मनोज अहसास on August 4, 2015 at 8:57pm
बहुत सुन्दर
भावपूर्ण
बेहद संवेदशील
प्रभावी
आपको बहुत बधाई सर
सादर

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