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परम्परा:लघुकथा :हरि प्रकाश दुबे

“सुनो ! अमर से बात हुई क्या  ?”

“नहीं, क्या बात करूँ , कुछ सुनता ही नहीं ,अब तो लगता है दिन में भी पीने लगा है ?”

“पर अमर की माँ मैं तो समझ ही नहीं पा रहा की वो ऐसा क्यों करने लग गया ? बाहर तो लोग उसकी तारीफ़ करते नहीं थकते !”

“अरे आप भी ना , जानकर भी अनजान क्यों बन जातें हैं ? वही उस लड़की का चक्कर है सारा, मैं कहे देती हूँ, ये लड़का हमारी परम्परा को संस्कारों को मिट्टी में मिला देगा एक दिन, इकलौता ना होता तो कसम से इसका गला दबा देती !”

“कौन, अरे वो बेबी , जो अपनी जात से अलग थी क्या ?”

“हाँ ,वही कलमुहीं !”

“ओह ! पर वो तो मान गया था कहता था,पिताजी आप की बात सर आँखों पर, फिर क्या हो गया अचानक ?”

“तभी से तो वो ये हरकत कर रहा है !”...थोड़ी देर सन्नाटा ,फिर

“अब तुम्हे साँप क्यों सूँघ गया ?”

“अरे कुछ नहीं सोच रहा हूँ, तुम्हारा गला दबा दूं ,तुम भी तो इकलौती हो न ..!

“चलो अब रोने की बात नहीं है, याद है “जब बच्चा बचपन में बिस्तर गीला करता था तब तुम क्या करतीं थी ?...बच्चे को फेंक देती थीं या उस कथरी को ?”

“जी ,कथरी को ,या उस चादर को धो देती थी !” 

“ तो बस समझो वही बात है , चलो बेबी के घर फ़ोन लगाओ , कहो अमर के पिता आ रहें हैं, और घर का पता पूछ लेना  !”

“अरे, पागल हो गए हो क्या ? हमारे पूरे खानदान में ऐसा कभी नहीं हुआ, ये तो हमारी परम्परा नहीं,रिश्तेदारों को और समाज को क्या मुहं दिखलायेंगे !”

“ जब हमारा बच्चा ही नहीं रहेगा तब तुम अपनी परम्परा की गठरी सिर पर रख कर ढ़ोना, और सुनो अमर की माँ, और मुझे नहीं लगता हमारे बेटे में या बेबी में कोई कमी है !”

“ सुनिए ,मैं  भी साथ चलूंगी आप की बात समझ गयी !”

“क्या ?”

..जब भी किसी से प्यार करो तो उसकी अच्छाई को भी स्वीकार करो और कमियों को भी !

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 27, 2015 at 8:47pm

आय हाय ! क्या सुन्दर कहानी हुई है !!

आपको हार्दिक धन्यवाद आदरणीय हरि प्रकाशजी. सामान्य सी कथा को आपकी संवेदना ने भरपूर सम्मान दिया है और यह कथा अवश्य पठनीय हो गयी है.
ढेर सारी शुभकामनाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 20, 2015 at 8:38pm

एक अच्छे कथानक पर सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई 

Comment by vijay nikore on May 20, 2015 at 4:15am

 सुन्दर लघु कथा के लिए बधाई।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 20, 2015 at 12:06am

बहुत सुंदर. एक संदेशप्रद रचना ,आदरणीय हरिप्रकाश जी. हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by savitamishra on May 19, 2015 at 10:56pm

बहुत सुन्दर कहानी आदरनीय

Comment by विनय कुमार on May 19, 2015 at 9:48pm

सुन्दर कहानी आदरणीय हरी जी , किसी को भी उसकी अच्छाई और कमियों सहित ही स्वीकार करना चाहिए | 

सादर.

Comment by Shubhranshu Pandey on May 19, 2015 at 6:17pm

आदरणीय हरि प्रकाश जी, 

सुन्दर कथा. देवदास की कथा को नये सिरे से लिख कर आपने एक अलग आनन्द दिया है. 

सादर.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 19, 2015 at 4:21pm

हरी प्रकाश जी

अच्छा सन्देश है और सामयिक भी  i क्योंकि अब बच्चे आत्मनिर्णय लेने लगे हैं .

Comment by Shyam Narain Verma on May 19, 2015 at 10:58am
बहुत बढ़िया कहानी , हार्दिक बधाई आपको

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