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ग़ज़ल: नूर: गोया सस्ती शराब हो बैठे.

२१२२/१२१२/२२ (सभी संभावित कॉम्बिनेशन्स)

तुम तो सचमुच सराब हो बैठे.
यानी आँखों का ख़्वाब हो बैठे
.
साथ सच का दिया गुनाह किया   
ख्वाहमखाह हम ख़राब हो बैठे.   
.
फ़िक्र को चाटने लगी दीमक
हम पुरानी क़िताब हो बैठे.
.
उनकी नज़रों में थे गुहर की तरह  
गिर गए!!! हम भी आब हो बैठे.
.
अब हवाओं का कोई खौफ़ नहीं
कुछ चिराग़ आफ़्ताब हो बैठे.
.
ऐरे ग़ैरों के मुँह लगे तो लगा     
गोया सस्ती शराब हो बैठे.
.
तब फ़रिश्तों की घट गयी कीमत
जब से वो दस्तियाब हो बैठे.
.
निलेश 'नूर'

मौलिक / अप्रकाशित  

Views: 717

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 20, 2015 at 11:18am

शुक्रिया आ डॉ विजय शंकर जी 

Comment by Samar kabeer on April 20, 2015 at 10:57am
जनाब निलेश "नूर" जी,आदाब,ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 20, 2015 at 7:42am

ऐरे ग़ैरों के मुँह लगे तो लगा     
गोया सस्ती शराब हो बैठे.

आदरणीय बहुत ख़ूब कहा ...सादर 

Comment by वीनस केसरी on April 20, 2015 at 4:00am

तुम तो सचमुच सराब हो बैठे.
यानी आँखों का ख़्वाब हो बैठे
.


उम्दा ग़ज़ल ... वाह वा

Comment by shree suneel on April 20, 2015 at 1:50am
//अब हवाओं का कोई खौफ़ नहीं
कुछ चिराग़ आफ़्ताब हो बैठे. //
बहुत ख़ूब आदरणीय निलेश जी, बधाई...
Comment by Dr. Vijai Shanker on April 19, 2015 at 10:15pm
साथ सच का दिया गुनाह किया
ख्वाहमखाह हम ख़राब हो बैठे.
बहुत खूब, बधाई आदरणीय नीलेश शेवगांवकर जी, सादर।

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