चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है
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याद मुझे वो अक्सर ही आ जाती है
चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है
आग चढ़ी वो दूध भरी काली मटकी
वो मिठास अब कहाँ कहीं मिल पाती है
वो कुतिया जो संग आती थी खेतों तक
उसके हिस्से की रोटी बच जाती है
छुपा छुपव्वल वाली वो गलियाँ सँकरीं
दिल की धड़कन , यादों से बढ़ जाती है
डंडा पचरंगा खेले जिस बरगद में
ख़्वाबों में उसकी डाली आ जाती है
शाला की मेरी कुर्सी वो टूटी सी
कलम पट्टियाँ ले कर मुझे बुलाती है
ज़िन्दा रखना गाँव सदा अपने अन्दर
खुश्बू अमराई की आ समझाती है
धुयें धूल से भरी सड़क से पूछूँगा
क्या गाँवों की पगडंडी तक जाती है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सोमेश भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय श्याम भाई , आपकी पुरानी यादें ताज़ा हुई तो मेरा ग़ज़ल कहना सफल हुआ , आपका बहुत शुक्रिया ॥
गाँव में पला-बढ़ा ना होने के कारण इन सभी स्म्रतियों को खुल कर तो नहीं जिया पर गाँव में स्कूल की छुट्टियाँ व्यतीत की हैं और इन यादों के बुहत से तत्व स्मृति में समाहित हैं |ननिहाल में गिल्ली-डंडे से लेकर ,आम की बगिया में पके आम के चुने पर उन्हें पाने की होड़ ,बहुत कुछ याद हो आया आपकी इस गज़ल के जरिए |
इस गज़ल पे ढेरों बधाई
आदरणीय गिरिराज ji,
आपने पुरानी यादों को ताज़ा कर दिया है. ढेरों बधाई .
आदरणीय दिनेश भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया ॥
आदरणीय सौरभ भाई , आपकी उपस्थिति मात्र से नव ऊर्ज़ा का संचार हो जाता है , और आपकी प्रतिक्रिया हमेशा नया कुछ सिखा जाती है । गज़ल की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
1. - बरगद में को पर कर लूंगा
2.- आपके बताये हुये शे र को अगर ऐसा सुधार लूँ तो ?
लुकने छिपने वाली सँकरी गलियों की
याद आने से धड़कन बढ़ सी जाती है --- सही कह पाया क्या , बताइयेगा ।
आदरणीया प्राची जी , आपनी सराहना मेरा संबल है , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरणीय गिरिराजभाईजी, आपकी इस ग़ज़ल में सम्मोहन है. पाठकों को साथ बहा ले जाने की क्षमता है.
जिन गलियों से हो कर अपना यह जीवन ऐसा और इतना समृद्ध हुआ है उन गलियों की याद हूक तो पैदा करती है, यदि इस हूक को सटीक शब्द मिल जायें तो श्रोता और पाठकॊं पर जो असर होता है, वह उनकी आँखों को नम कर देता है.
आपकी इस भावमय ग़ज़ल के लिए दिल से बधाइयाँ.
आदरणीय ऐसी ग़ज़लों, जो शिल्प में मात्रिक हुआ करती हैं, (फेलुन फेलुन.. फा) इनकी ताकत मिसरों से छलकते भाव-शब्दों के साथ-साथ मिसरों की गेयता में होती है. गेयता के निर्वहन में शब्दों की मात्रिकता के साथ-साथ उन शब्दों के अक्षरों के अनुरूप संयोजन की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
ऐसा नहीं है कि आपके शेरों के मिसरे प्रवाहपूर्ण नहीं है लेकिन मुझे जाने क्यों एक-दो मिसरों पर पुनः प्रयास की आवश्यकता महसूस हुई है. वैसे इस ग़ज़ल की भाव-दशा पर और आपके संवेदनशील मनस पर मन मुग्ध हुआ जा रहा है.
छुपा छुपव्वल वाली वो गलियाँ सँकरीं
दिल की धड़कन , यादों से बढ़ जाती है .. . इस शेर का वाक्य संयोजन कुछ और प्रयास की मांग कर रहा है.
डंडा पचरंगा खेले जिस बरगद में ... . बरगद पर
ख़्वाबों में उसकी डाली आ जाती है
सादर
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