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ग़ज़ल - मैं रैक बना हूँ...... (मिथिलेश वामनकर)

22—22—22—---22—22--22

 

मीलों  पीछे सच्चाई को छोड़ गया हूँ

हत्थे चढ़ जाने के भय से रोज दबा हूँ

 

दीवारों पर अरमानों के  ख़्वाब टंगे हैं

छत से लटके पंखे सा मैं घूम रहा हूँ

 

अब तो सिग्नल पैहम खूनी ख़बरें लाए  

टीवी कब बच्चों के जैसे देख सका हूँ

 

एक बिकाऊ अफसर ने ईमान सिखाया

ए.सी. में भी  बैठे - बैठे खूब जला हूँ

 

रोज़ ख़यालों, लफ़्ज़ों से दीवान गढ़े हैं

चार किताबों की खातिर मैं रैक बना हूँ

 

बदले तेरे ख़त,  बदला है कासिद मेरा

अब  तेरी ई-मेलों का रस्ता तकता हूँ

 

ताल,नदी,पोखर में अब विश्वास कहाँ है

बोतल वाले पानी से ही तृप्त हुआ हूँ

 

आज जरुरत पूरी करते - करते घर की

टेबल के  नीचे वाली फिर मौत मरा हूँ

 

राय जरा दी रचना पर तो वें कहते है-

“सोशल साइट के पन्नों पर खूब चला हूँ”

 

यादों की गठरी का अक्सर लम्हा बनकर

तेरह  मेगापिक्सल में  मैं कैद हुआ हूँ

 

मत देखों,  पकवानों से तर मेरी थाली

मुट्ठी भर चावल को भी बरसों तरसा हूँ

 

रूह  किसी अखबारी कागज़ से लिपटी है

ख़बरों जैसी शक्ल बना के रोज़ छपा हूँ

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by मिथिलेश वामनकर on April 6, 2015 at 5:00pm

आदरणीय नीलेश जी हार्दिक आभार 

Comment by Nirmal Nadeem on April 6, 2015 at 1:21pm

NAYE RANG KE SAATH UMDA GHAZAL WAAAH WAAAH WAAAAAAH

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 6, 2015 at 10:33am

एकदम नये प्रयोग बेहद ख़ूबसूरती से किये हैं आपने। कुछ शे’र एकदम से चौंका देते हैं। इसके लिए बारंबार दिली दाद कुबूलें। ‘बिसलरी’ का जैसे उच्चारण होता है उसके हिसाब से इसे २१२ पर बाँधना चाहिए। आपने बह्र बनाने के लिए इसे (बिसलेरी) २२२ बाँध दिया है। मैं प्रचलित शब्दों को ग़लत बाँधने के कारण उस्तादों से डाँट सुन चुका हूँ इसलिए आपको आगाह कर दे रहा हूँ  :)

Comment by Nazeel on April 6, 2015 at 9:54am

आदरणीय मिथिलेश  भाई जी  खूबसूरत  ग़ज़ल के  लिए दिली दाद  क़ुबूल करें 

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on April 6, 2015 at 7:41am
आदरणीय मिथलेश जी उथले शब्दों में बेहद गहरे भावों को भरा है आपने हर युग्म ऊपर से शांत अन्दर तूफान की तरह प्रतीत हुआ है मिसरे के समांत या, और आ थोड़ा असहज करता है संप्रति पूरी ग़ज़ल के लिये दिली दाद है आपको नमन भी।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 6, 2015 at 7:20am

बहुत खूब ...मुट्ठी भर चावल को भी बरसों तरसा हूँ
क्या बात 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on April 6, 2015 at 5:23am

आदरणीय वीनस भाई जी ग़ज़ल पर सार्थक, सकारात्मक और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया एवं अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार, 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 6, 2015 at 5:22am

आदरणीय राज बुन्देली जी सकरात्मक और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार,

Comment by वीनस केसरी on April 6, 2015 at 2:10am

नए दौर की दिक्कतों और अहसासात को क्या खूब ग़ज़ल में पिरोया है

ढेरो दाद क़ुबूल फरमाएं ..

Comment by कवि - राज बुन्दॆली on April 6, 2015 at 2:00am

आदरणीय,,,मिथिलेश वामनकर जी

्शानदार गज़ल हेतु बधाई,,,,,

कृपया ध्यान दे...

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