22-22--22-22--22-22—2 |
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तुम बिन सूने-सूने लगते जीवन-वीवन सब |
साँसें-वाँसें, खुशबू-वुशबू, धड़कन-वड़कन सब |
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आज सियासत ने धोके से, अपने बाँटें है- |
बस्ती-वस्ती, गलियाँ-वलियाँ, आँगन-वाँगन सब |
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मन को सींचों, रूठे रहते बंजर धरती से- |
बादल-वादल, बरखा-वरखा, सावन-वावन सब |
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कितनी जल्दी छिन जाते है पद से हटते ही |
कुर्सी-वुर्सी, टेबल-वेबल, आसन-वासन सब |
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तेरी चुप्पी में भी मुझसे बातें करते हैं- |
पायल-वायल, बिंदिया-विंदियाँ, कंगन-वंगन सब |
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तुम आई जो मन मंदिर में, जी को भाए हैं- |
पूजा-वूजा, श्रद्धा-व्रद्धा, दर्शन-वर्शन सब |
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रंग मुहब्बत का छाया तो हमने तोड़े है- |
रिश्तें-विश्तें, कसमें-वसमें, बंधन-वंधन सब |
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यार मिला तो, छोटे लगते, कस्बे के आगे- |
पेरिस-वेरिस, बर्लिन-वर्लिन, लन्दन-वन्दन सब |
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तेरी साँसों के बिन कितने सादे लगते हैं- |
जूही-वूही, मोंगर-वोंगर, चन्दन-वन्दन सब |
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रंगमंच ये सारा उसका, उसके ही तो है- |
नाटक-वाटक, परदे-वरदे, मंचन-वंचन सब |
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Comment
आदरणीय गुमनाम सर जी हार्दिक आभार.
आपने भी खूब लिखा है.
आदरणीय विजय शंकर सर हार्दिक आभार, नमन
आदरणीया महिमा जी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय कृष्ण जी आभार
आदरणीय सुनील जी आभार
आदरणीय गिरिराज सर, सराहना के लिए आभार , मतले में संशोधन करता हूँ. सादर
आदरणीय गोपाल सर हार्दिक आभार.
ये ग़ज़ल राहत साहब की ग़ज़ल से प्रेरित है. पहले तरही ग़ज़ल ही लिखना चाह रहा था लेकिन फिर नए काफिया के साथ लिखने लगा.
आदरणीय नीलेश जी, ग़ज़ल पर मार्गदर्शन के लिए आभार. मतले पर पुनः विचार करता हूँ.
राहत साहब के रंग का ही असर है. पहले रदीफ़ 'क्या' ले रहा था किन्तु 'सब' के सम्मोहन को छोड़ नहीं पाया,
सादर.
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