' मौन को भी जवाब ही समझें '
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जिन्दगी को हुबाब ही समझें
संग काँटे, गुलाब ही समझें
बदलियों ने चमक चुरा ली है
पर उसे माहताब ही समझें
शर्म आखों में है अगर बाक़ी
क्यों न उसको नक़ाब ही समझें
इक दिया भी जला दिखे घर में
तो उसे आफ़ताब ही समझें
ठीक है , टूटता बिखरता है
पर उसे आप ख़्वाब ही समझें
दस्ते रस से अगर है दूर कोई
क्या उसे हम ख़राब ही समझें
बुझ गई आग गंदे पानी से
क्या पियें ? और आब ही समझें
हाथ उठ्ठे हैं मेरी जानिब से
मौन को भी जवाब ही समझें
इक नशा है ग़ज़ल सराई भी
कहने वाले , शराब ही समझें
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
भाई वाह!
शर्म आखों में है अगर बाक़ी
क्यों न उसको नक़ाब ही समझें... आरणीय बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकारें !
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