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121--22--121--22--121--22--121—22

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हमें  इज़ाज़त  मिले  ज़रा  हम  नई  सदी  को  निकल  रहे है

जवाँ परिंदे  उड़ानों की अब,   हर  इक  इबारत  बदल  रहे हैं।*

 

गुलाबी  सपने  उफ़क  में  कितने  मुहब्बतों  से  बिखर गए है

नया  सवेरा  अज़ीम करने,  किसी  के  अरमां  मचल  रहे  है।

 

मिले  थे  ऐसे  वो  ज़िन्दगी  से,  मिले  कोई जैसे अजनबी से

हयात से जो  मिली  है  ठोकर  जरा - जरा  हम  संभल रहे है।

 

अजीब महफ़िल, अजीब आलम, अजीब हस्ती, अजीब मस्ती

किसी  के  अहसास  पल रहे है  किसी के  ज़ज्बात जल रहे है।

 

बुजुर्गों अपनी ‘नसल’ पे तुम  भी  यकीन  इतना जुरूर रखना

बड़े अदब से  औ  एहतियातन  जमाना  हम  तो  बदल रहे है।

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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* आदरणीय गिरिराज सर द्वारा सुझाये संशोधन पश्चात् मिसरा.

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Comment by rajesh kumari on February 18, 2015 at 7:37pm

बहुत अच्छे ,बहुत अच्छे ....एक लम्बी बह्र को अच्छे से निभा गए आप मिथिलेश जी सभी अशआर बढ़िया हैं 

मिले  थे  ऐसे  वो  ज़िन्दगी  से,  मिले  कोई जैसे अजनबी से

हयात से जो  मिली  है  ठोकर  जरा - जरा  हम  संभल रहे है।----ये सबसे ज्यादा पसंद आया 

बहुत- बहुत बधाई आपको 

 

Comment by somesh kumar on February 18, 2015 at 7:36pm

आपकी हर रचना अच्छी लगती है |गजलों के मामले में  वैसे भी हाथ-तंग है \पर इस ख्याल से बावस्ता हूँ कि जवां परिंदे अदब और अह्तियाह्त से बदलाव ला रहे हैं |रचना पर बधाई |


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 11:48pm

आदरणीय समर कबीर जी, आप जैसे सुखनवर जब दाद देते है तो दिल बाग़ बाग़ हो जाता है. जर्रानवाजी का शुक्रिया 

Comment by Samar kabeer on February 17, 2015 at 11:41pm
जानाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद क़ुबूल फ़रमाऐं |

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Comment by गिरिराज भंडारी on February 17, 2015 at 10:49pm

यही तो इस मंच की खासियत है , आदरणीय मिथिलेश भाई ॥


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 10:45pm

आदरणीय गिरिराज सर, आज शिकस्ते-नारवा का उल्लेख आया तो तरही मुशायरे की याद आ गई जब पहली बार इसके बारे में सुना तो शिकस्ते- नारवा क्या बला है समझ नहीं पाया था तब आदरणीय सौरभ सर ने  पहली बार इससे परिचित कराया था. वो बात जहन में ऐसी बैठी कि क्या कहूं. इस ग़ज़ल के मतले में ये दोष पोस्ट से पहले ही समझ में आ गया था पर फिर भी सुधारने के लिए विकल्प नहीं सूझ रहा था. आज आपकी टिप्पणी के बाद अपने आप दो तीन विकल्प आ गए. मंच पर आने के बाद दिमाग चलने लगता है.. हा हा हा 


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Comment by गिरिराज भंडारी on February 17, 2015 at 10:42pm

शुक्रिया मिथिलेश भाई , मेरा प्रयास रहता है , एक एक रुक्न मे शब्द खत्म हो , न बन पड़े तो दो रुक्न मे तो होना ही चाहिये ॥ अपका मिसरा भी सही है , दो रुन मे शब्द खतम हो के तीसरा नये शब्द से शुरू हो रहा है , ये भी चलता है ॥


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 10:34pm

बहुत बढ़िया है सर,  अलिफ़ वस्ल का बढ़िया प्रयोग 

हमें  इज़ाज़त  मिले  ज़रा  हम  नई  सदी  को  निकल  रहे है

 जवाँ परिंदे  उड़ानों की अब,   हर  इक  इबारत  बदल रहे हैं


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Comment by गिरिराज भंडारी on February 17, 2015 at 10:31pm

सही है , आदरणीय मिथिलेश भाई , ऐसा किया जा सकता है ॥


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Comment by गिरिराज भंडारी on February 17, 2015 at 10:26pm

आदरणीय -- जवाँ परिंदे / उड़ानों की अब / , हरिक  इबारत / बदल रहे हैं 

ठीक है क्या ? बताइयेगा

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