अब तक आदित्य को लगता था कि पति-पत्नी क रिश्ते में पति ज्यादा अहम होता है | उसे ज्यादा तवज्जो, मान सम्मान मिलना चाहिए | शायद इसमें उसका कोई दोष भी नही था जिस समाज में वह पला-बढ़ा वह एक पितृ-सत्तात्मक समाज है जहाँ पिता भाई व पति होना ही बहुत बड़ी उपलब्धि है |माँ-बहन व पत्नी ये हमेशा निचले पायदान पर ही रही हैं, बेशक वो समाजिक तौर पर कितनी भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करें |
बालक के जन्म लेने पर उसके स्वागत में उत्सव और कन्या जन्म पर उदासी |बालक को हर चीज़ में तरजीह और आज़ादी जबकि बालिका के लिए बात-बात पर कटौती और झिड़कियाँ |हर तरह से योग्य होने पर भी कन्या के विवाह पर मोटा देहज देने की अनिवार्यता |तलाकशुदा कन्या को हेय दृष्टि से देखने का समाजिक आचरण |तरक्कीपसंद लड़कियों के चरित्र को लेकर समाजिक फब्तियाँ |विधवाओं के साथ होने वाले अन्याय और उनकी पुनः स्वीकृति में आने वाली अड़चने |ये कुछ ऐसे प्रश्न थे जो अक्सर उसे परेशान करते थे |वो सोचने लगता कि पुरुष भर होने से समाज में सत्ता का प्रथम अधिकार क्यों स्वीकार्य हो जाता है ?फिर वो राहत महसूस करता कि वो स्त्री नहीं है|वो दीन-हीन कमज़ोर नही है|
वस्तुतः वह मध्यमवर्ग के तथाकथित उदार वर्ग का चेहरा था या यूँ कह लें कि मुखौटा था| कभी-कभी वो दुविधा में पड़ जाता था कि-‘ यत्र नारियस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ‘ वाले समाज में नारी इतनी दीन-हीन है ! जोगिनों, सन्यासिनों व देवदासियों के कष्टमय जीवन के बारे में जब वो सुनता तो धार्मिक स्थलों व धर्म के इस दोगलेपन से उसे घृणा हो आती| उसके विचार में देह–व्यापार कर अपने बच्चो को सम्मानजनक जीवन देने का सपना देखने वाली स्त्रियां वास्तव में देवियाँ थी जो समाज में खुले घुमते कामांध भेड़ियो की वासना को तृप्त कर ना जाने कितनी बच्चियों व लड़कियों की ज़िन्दगी को बचाती थी | उसे कामांध पिता या भाई के किस्से पढ़कर आक्रोश आता था तथा मनुष्य व पुरुष होने पर ग्लानि होती थी |
“जानवर व मनुष्य में फर्क ही क्या ? जब वो रिश्तों का भी मान–भंग कर दे |” वह अपने दोस्तों से अक्सर कहता था|
पर जो भी हो|वो liberal पुरुषवाद का मुखौटा था| उससे भी बढ़कर वो एक पुरुष था | उसे अपने उन दोस्तों से भी कोफ़्त होता था जो man liberty againest women equaliy की मानसिकता में जी रहे थे| जहाँ उसके दोस्त राह चलती लड़की को ‘माल” कहने तथा पत्नी के अलावा एक गर्ल-फ्रेंड रखने को अपना हक़ मानते थे वहीं बहन का बॉय-फ्रेंड होना तथा पत्नी का पड़ोसी से बात करना उन्हें नागवार था| वो जो भी सोचता हो पर वो था तो पुरुष ही| वस्तुतःवो लिबरल-पुरुषवाद का मुखौटा ही तो था|यह बात उसे अपने विवाह के बाद समझ में आई|
दफ्तर से आने के बाद अगर तुरंत चाय ना मिले तो वह भन्ना उठता था,खाने में नमक मिर्च का अनुपात बिगड़ने पर उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता और वो मिनाक्षी को 4 बाते सुना देता और मिनाक्षी बस इतना कहती कि आगे से ध्यान रखूंगी| पड़ोस की नयी भाभियों को चुपचाप निहारने व उनसे बतियाने का वो कोई मौका नही जाने देता था पर अगर मिनाक्षी को किसी पड़ोसी से बात करते हुए सुन ले तो फटाफट कहता –“ अंदर आओ ,काम है |”
उसके दोस्त अक्सर शिकायत करते थे कि उनकी पत्नी उन्हें लेकर ज्यादा पजेसिव है तथा उन्हें ये गुलामी लगती है| वो चुप्प रहता था पर अपने अनुभवो से जानता था कि पजेसिव तो मेल भी हैं,पर अपनी ईगो के चलते उसे अलग तरह से दिखाते हैं | आदित्य को पाक-कला का शौक था और वह शादी से पहले उल्टा- पुल्टा बनाता रहता था | आदित्य ने एकाध बार मिनाक्षी के सामने अपनी कला दिखाने का प्रयास किया पर देशी,घरेलु,पारंपरिक मिनाक्षी ने उसकी पाक कला को अस्वीकार कर दिया| आदित्य ने फिर किचन में ना घुसने का ऐलान कर दिया वो अलग बात है कभी-कभी बीमार पड़ जाने पर मिनाक्षी आदित्य को कहती –“ तुम्हारे हाथ के पुलाव बड़े अच्छे होते है,बनाओ ना! अपने तरीके से .......”
पुलाव बनाते हुए और प्यार से परोसते हुए आदित्य को अनुभव हुआ कि-स्वाद मसाले तेल का नही होता, बल्कि उन भावनाओ व समर्पण का होता है जो बनाने वाले के मन में होती है|जब वो बीमार मिनाक्षी को और सर्व करता तो वो मना नही करती ,खाना सही ना बनने पर भी वो चुप्प रहती तो उसे समझ आता कि ‘प्यार’ सम्मान देना, क्या होता है |
रविश के जन्म के एक माह बाद से ही मिनाक्षी बीमार रहने लगी, शुरु में साँस फूलना व खाँसी आना शुरु हुई ,15 दिनों के दवा खाने के बाद भी आराम ना मिला तो विशेषज्ञ को दिखाया उन्होंने कुछ और टेस्ट लिखे|इस बीच वह दफ्तर से आने के बाद व जाने से पहले घर के कई कामों में हाथ बटाने लगा| यद्यपि ‘रविश ‘ के जन्म के समय ‘माँ’ आ गईं थीं| पर बूढ़ी व बीमार माँ किसी तरह रविश को ही संभाल ले,वो ही बड़ी बात थी | इस समय आदित्य ‘आदर्श पति’ ‘आदर्श पुत्र’ ‘आदर्श-पिता’ तीनो भूमिकाओं को पूरी कुशलता से निभाने की कोशिश कर रहा था |वो नही चाहता था कि काम को लेकर बीमार पत्नी व बूढी-माँ में कहासुनी हो इसलिए वह यथा संभव घर के कामो में सहयोग देता |
बीमार मिनाक्षी जो यह समझती थी कि वह उसका काम है,कई बार खीझ कर पोछा छीन लेती,बर्तन में जूठन का बहाना बना कर धोने चली आती| आदित्य लड़ता ना था जितना हो सकता था चुपचाप कर लेता था| डाक्टर ने अगली रिपोर्ट आने तक मिनाक्षी को रविश से दूर रहने के लिए बोला था| रात में रविश को लेकर आदित्य बिस्तर पर उल्टी तरफ सोता था तथा केवल फीडिंग के लिए ही रविश को मिनाक्षी के पास लाता |शुरु के पहले महीने जब ‘रविश’ बिस्तर गीला कर देता और मिनाक्षी ध्यान नही देती तो वो ‘नैपी’ बदलते समय मिनाक्षी को कसकर डाँटता पर अब वो ‘रविश’ को सुलाकर,सो रही मिनाक्षी के गालों पर एक चुंबन लेता और बालों पर हाथ फिराकर कहता’ ‘गेट् वेल सून ’ मुझे बड़ी तकलीफ होती है |
मिनाक्षी के बड़े भाई की शादी अगले १५ दिनों में थी, वो उसे लेने आ रहे थे|टी.बी. के सारे टेस्ट नेगटिव थे पर मिनाक्षी की हालत में ज्यादा सुधार नही था|डॉo की सलाह थी कि और टेस्ट करवा लिए जायें सीरियस मामला हो सकता है| आदित्य ने मिनाक्षी से कहा की वह अभी शादी मे जाना टाल दे और अगर सब टैस्ट ठीक आए तो वे दोनों इकट्ठे जाएँगे |पर तीन भाईयों की एकलौती बहन होने कारण वह अपने फर्ज से समझौता करने को तैयार ना हुई|ससुराल वालों ने भी आदित्य को आश्वासन दिया कि वो उसे जिले के सबसे अच्छे डॉo को दिखायेंगे |
मायके जाकर मिनाक्षी की तबियत में कुछ सुधार ना हुआ|अक्सर मिनाक्षी फ़ोन पर कहती – “मुझे डर लगता है कि मै वापस नही आ पाऊँगी |”
डर तो आदित्य भी जाता था–पर वो कहता बेकार में मत डराओ ,तुम्हें कुछ नही होगा| तुम कहो तो लेने आ जाऊँ ?”
इस पर मिनाक्षी कहती –“ शादी के बाद, तुरंत चली आऊँगी तुम्हारे साथ .....”
दो रोज़ पहले आदित्य भी विवाहोत्सव में पहुंच गया |शादी की तैयारियाँ पूरे जोर-शोर से हो रही थीं |पूरा घर सजा-संवरा था पर मीनाक्षी के चेहरे पर नैराश्य और पीलापन हावी हो गया था |
आदित्य ने मीनाक्षी से कहा –“कल ही मुम्बई लौटते हैं|तुम्हें कुछ हो गया तो मेरे लिए ये विवाह सबसे बड़ा शोक-समारोह होगा |”
“परेशान मत करो,भाई का विवाह निपटाए बगैर मैं नहीं चलने वाली|और अगर मुझे कुछ हो जाए तो यहाँ मेरी कितनी सारी बहने हैं|”मीनाक्षी ने ठिठोली की जिस पर आदित्य चिढ़ गया और बाहर निकल गया|
शादी अच्छे से निपट गई |तीन दिन बाद ही उनकी मुंबई वापसी की ट्रेन थी | बीमार होने के बाद भी मनाक्षी ने सभी रस्मो में बढ़-चढ़ कर भाग लिया,नाची-गाई और सबसे बड़ी बात आदित्य से प्यार पाने व जताने का कोई मौका नही गवाया |
वापसी वाले दिन सुबह की चाय के लिए आदित्य को जगाया गया | नीला ने मिनाक्षी को जगाने की कोशिश की तो आदित्य ने ये कहकर रोक दिया कि-“ सो लेने दो ,थोड़ी और देर ,बीमार है, थकावट है और फिर जाना भी तो है | चाय पीकर वह आंगन में आ गया और रिश्तेदारों से बात करने लगा | तभी अचानक एक चीख सुनकर वो घर में भागा| “जीजाजी, दीदी जग नही रही हैं!”
थोड़ी ही देर में चीख-पुकार मच गई|आनन-फानन में नजदीकी अस्पताल में पहुंचे पर ......
सभी संस्कार कर 18 दिन बाद’ आदित्य’ ‘रविश’ को लेकर मुम्बई आ गया | अलमारी में रखे मिनाक्षी के कपड़े,रंग–बिरंगी चूड़ियों का बक्सा,अलग-अलग रंग की लिपिस्टिक,बाथरूम की टाईल्स, मिरर पर चिपकी रंग बिरंगी अलग-अलग डिज़ाइन की बिंदी ,आदित्य को समझ नही आ रहा था की अब वो क्या करे !
मिनाक्षी को गुजरे हुए 6 महीने हो गए हैं|सभी परिवार वाले गाँव गए हैं|रविश को चार महीने से दीदी संभाल रही हैं|ऑफिस से आने के बाद उसे घर काटने को दौड़ता है| वो कपड़े तो इस्त्री कर लेता है पर तह नहीं कर पाता| आज अचानक बाईक से फिसलकर आदित्य का हाथ मुड़ गया है|चोट बड़ी नही है पर दर्द तो दर्द है और अपने व अपनो के दर्द से बढ़कर कुछ नही होता|
दर्द के इस आभास में शायद अपनापन भी है |समर्पण भी और प्यार भी| सीधा हाथ है और उसे सीधे की आदत है,उलटे के काम में निपुणता नही है फिर भी वो कोशिश कर रहा है ताकि सीधे की तकलीफ कम हो जाये| इसमें प्यार है,भावना है, समर्पण है|उसे आज यह आभास हो रहा है कि उसका तथा मिनाक्षी का प्यार या पति–पत्नी का प्यार दोनों हाथों की तरह होता है |एक में कुशलता होती है गति होती है, पर दूसरा धीमा होते हुए भी उसे पूर्णता देता है उसकी गति को बनाये रखता है|
आदित्य को कमीज तह करनी नही आती है, मिनाक्षी ही उसकी कमीज को इस्त्री करके तह करती थी | अब कमीज इस्त्री तो होती है पर तह नही |किचन में प्रयोग करना अब उसे नही सुहाता| उसे रोटियां पसंद हैं पर बनानी नही आती | मिनाक्षी जब कभी रोटियां नहीं बनाती तो आदित्य उस पर गुस्सा हो जाता| पर अब वो बिना शिकायत के ही दाल-चावल खा रहा है |अब उसे लगता है –शिकायतें , झगड़ा. पूर्ण एकाधिकार का भावना ये सभी प्यार के ही तो भाव हैं| पति- पत्नी का रिश्ता दो हाथों का रिश्ता है |जहाँ एक-दूसरे के बिना ताली नही बजती है |जब एक चोटिल होता है तो दूसरा अनायास ही उसके दर्द को कम करने में जुट जाता है |दोनों हाथों का होना आदमी को सम्पूर्ण बनाता है |दूसरा हाथ अगर ना रहे तो पहला चाहे कितना भी कुशल क्यों ना हो, अपंग, लाचार और धीमा रह जाता है |
सोमेश कुमार (२९/०५/२०१४)(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय सोमेश जी,
सुन्दर कथा. कहानी किसी बडॆ़ कहानी का प्लाट लग रहा है. टुकडों में कहानी प्रभावित करती है..
सादर.
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर आपने बहुत अच्छी बात साझा की है, कहानी के शिल्प को समझने के लिए आपकी टिप्पणी बहुत सार्थक है. कहानी में रचनाकार के बोलने की बजाय घटनाये, घटित होती हुई प्रतीत होनी चाहिए यानि कहानी स्वयं कहे, आप नहीं. पात्रों का आपसी संवाद कहानी को जीवंत करता है, व्याख्यान नहीं.इस अमूल्य सीख के लिए हार्दिक आभार और नमन.
सोमेश जी
मैं अपनी बात को दुहराना चाहता हूँ i आप अपनी कहानी में स्वयं बोलते है i परन्तु घटनाये घटित होती नहीं दिखती i पात्र आपस में संवाद नहीं करते i आप केवल भावुकता से भरा व्याख्यान करते हैं i कहानी के शिल्प को समझना जरूरी है i कथा का प्रारंभ मानो ऐसा होता -
'पति पत्नी की रिश्ते में अहम् कौन हाँ पति या पत्नी ?] -आदित्य ने अचानक एक प्रश्न किया i
'मैं क्या कहू , पितृ सत्तात्मक सत्ता में तो आप को ही श्रेष्ठ मानना लाजिमी है i' -माधवी ने मुस्कराकर उत्तर दिया i
'यानि पति को श्रेष्ठ मानना पत्नी की मजबूरी है i'- आदित्य ने छुब्ध होकर कहा i
'मैं क्या कहू आप स्वयं समझदार हैं i'- माधवी ने सतर्क होकर उत्तर दिया -'पर यह निर्विवाद है कि पुरुष शारीरिक शक्ति में प्रायशः नारी से बढ़कर है i'
माधवी के उत्तर से आदित्य का छोभ कुछ कम तो हुआ पर उसका दर्प शांत न हुआ -' तुम्हारा तात्पर्य है कि मानसिक शक्ति में मनुष्य नारी से पीछे है i'
माधवी को इस प्रश्न पर आश्चर्य हुआ i मनुष्य का आत्माभिमान क्या सचमुच इतना उन्नत है i उसने घबरा कर उत्तर दिया - 'नहीं , मेरा यह आशय नहीं था i यदि नारी पुरुष की अनुगामिनी है तो केवल इसलिए कि वह पति को श्रेष्ठ मानती है i'
सोमेश भाई , आपका कहानी लेखन के प्रति रुझान है , आप और भी बढ़िया लिख सकतें हैं , मेरा अपना मानना है , प्रयास करते रहिये , शुभकामनायें ! सादर
सभी मित्रों और आदरणीय जनों का तहे दिल से शुक्रिया |मिथलेश भाईजी आपकी विश्लेषणात्मक टिप्पणियों एवं त्रुटियों को इंगित करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया |कोशिश करता हूँ की जल्दी से जल्दी इन कमियों को दूर करूं |
बधाई आदरणीय सोमेश कुमार जी, सादर।
आदरणीय सोमेश भाई , बहुत मार्मिक कहानी कही है , दिली बधाइयाँ । आ. मिथिलेश भाई की बातों का संज्ञान ज़रूर लीजियेगा ।
आदरणीय सोमेश भाई जी बहुत ही अच्छी और दाम्पत्य जीवन के सबसे मार्मिक पक्ष को उजागर करती सुन्दर कहानी है. इसके लिए बधाई स्वीकार करे. कुछ बातें विंदुवार साझा करना चाहता हूँ -
1. रचना को थोड़ा और समय दे एवं छोटी छोटी त्रुटियों विशेषकर टायपिंग त्रुटियों, मात्रात्मक त्रुटियों को ठीक करने के उपरान्त ही बड़ी रचना पोस्ट करें. जैसे
अब तक आदित्य को लगता था की पति पत्नी क रिश्ते में पति ज्यादा अहम होता है |
कहानी के पहले वाक्य में ही कि के बजाय की पढ़कर, रचना के प्रति आकर्षण कम हो जाता है | इसी त्रुटी की कई बार पुनरावृत्ति हुई है|
2. तथा, और या एवं के पूर्व अल्पविराम भी त्रुटिपूर्ण है जिसका प्रभाव कथा के प्रवाह पर पढ़ता है|
3. स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का वाक्य-विन्यास के सौदर्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है, कतिपय त्रुटियाँ निवेदित है-
उन दोस्तों से भी कोफ़्त होता था------------उन दोस्तों पर भी कोफ़्त होती थी
उन्हें ये गुलामी लगता है--------------उन्हें ये गुलामी लगती है
4. मेरे अनुसार ना के स्थान पर न का प्रयोग करने से कथ्य अधिक अच्छे से उभर कर आयेगा.
5. माँ-बहन व पत्नी ये हमेशा निचले पायदान पर ही रही हैं, बेशक वो कितनी भी उपयोगी हों | यहाँ उपयोगी शब्द बिलकुल नहीं जम रहा.
6. तथकथित -तथाकथित, नागवारा- नागवार, टी.वी.- टी. बी. आदि शब्द ठीक कर ले.
7. कहानी के आरम्भ और अंत में बड़े पैराग्राफ हो गए है... भाव के परिवर्तन के साथ पैरा बदलने से कथ्य और अधिक उभर कर आएगा.
8. पात्रों के नामों में इनवर्टेड कॉमा गलत है.
9. आदित्य के शादी में आने का उल्लेख होता तो अच्छा था.
कहानी की इस पंक्ति ने, जिसे कई बार सुना है पर कहानी में इसके बेहतरीन इस्तेमाल ने बहुत प्रभावित किया -
आदित्य को अनुभव हुआ कि-स्वाद मसाले तेल का नही होता, बल्कि उन भावनाओ व समर्पण का होता है जो बनाने वाले के मन में होती है|
सुंदर मर्मस्पर्शी कहानी. बधाई आदरणीय सोमेश जी.
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