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यह बचपन ,बचपन मैं जवान हो गया

जानता नहीं बचपन ,बचपन क्या चीज है

नहीं जानता  है यह हंसना -खेलना

नहीं जानता यह रूठना मनाना,

जानता नहीं यह माँ बाप का प्यार

सीखा नहीं क्या होता है बचपन का दुलार

नहीं सीखा इसने पढ़ना लिखना ,

हाँ सीख लिया है जिंदगी को पढ़ना

जानता हैं चौबीसों घंटे मेहनत करना

रोटी कपडा मिलता है इसे इनाम

यह बचपन,बचपन मैं जवान हो गया

अब यह जवान हो गया है

जवान होते होते जिसने अपनी जवानी ,

बचपन मैं ही गिरवी रख दी है

अब यह जवानी बुढ़ापे पर भार है

यह मात्र कंकालों का जोड़ तोड़ है

भूक व डर की हवा चलने पर अब भी हिलता है

यह एक जवान है

इसका बुढ़ापा एक जीने की औपचारिकता व मौत का इंतज़ार है

इसे जिंदगी से भय व मौत से प्यार है

यह एक बुझा हुवा अंगारा है

फिर भी यह मुक्ति का अंतिम चरण तो है

 

मौलिक व अप्रकाशित

श्याम मठपाल

 

 

 

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 27, 2015 at 11:14am

मरते बचपन की और इसरा करती इस सुन्दर रचना के लिए बधाई .

Comment by Shyam Mathpal on January 26, 2015 at 8:01pm

Priya jitendra ji,

Kavita aapko pasand aai . Dhanyabad

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on January 26, 2015 at 6:45pm

युवास्था का संघर्ष व् गंभीरता ही ,  पुरे जीवन का परिणाम होता है. जो बृद्धावस्था में मिलता है जब इंसान असक्त होता है. बधाई श्याम जी

Comment by Shyam Mathpal on January 26, 2015 at 3:05pm

Aadarniya Dubey Sb.

Bahut dhanyabad. Aapko rachna pasand aai.

Comment by Shyam Mathpal on January 26, 2015 at 3:03pm

Aadarniya,

Wamankar Sb.Bahut dhanyabad.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2015 at 12:03pm

आदरणीय श्याम मठपाल जी जिंदगीनामा पर सुन्दर रचना बधाई आपको ! प्रयास जारी रखे.

बचपन, जवानी, बुढ़ापा आसक्ति 

तरे जब भी व्यक्ति, वही तो है मुक्ति 

Comment by Hari Prakash Dubey on January 26, 2015 at 11:24am

आदरणीय श्याम मठपाल जी सुन्दर प्रयास ,सुन्दर रचना बधाई आपको !

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