लेकर बेठे हो, सारी नदियाँ
अनंत मूल्यवान, वनस्पतियाँ
भरपूर वन्य-जीव प्रजातियाँ
दिव्य देवताओं की, सम्पतियाँ
फिर भी करते रहते हो तुम
हरे भरे हिमालय, के लिए
आन्दोलन पर आन्दोलन
दिल्ली दरबार, वातानुकूलित कमरे
निशा में, आचमन पर आचमन
हमसे पूछो, हम कैसे जीते हैं
अपनी आँखों के आंसू पीते हैं
यहाँ सूख चुकी सारी नदियाँ
नष्ट हो गयी वनस्पतियाँ
लुप्तप्राय वन्य जीव प्रजातियाँ
लुट गयी देवों की सम्पतियाँ
अब तुम हमको न बहलाओ
थोड़ी कृपा हम पर बरसाओ
हमारे जख्मों पर मरहम लगाओ
खुशनसीब हो तुम्हारे यहाँ
देवी और देवता रहा करतें हैं
हमारे यहाँ तो अब पर्वतों पर
पत्थर उगा करते हैं !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित
Comment
थोड़ी कृपा हम पर बरसाओ
हमारे जख्मों पर मरहम लगाओ
खुशनसीब हो तुम्हारे यहाँ
देवी और देवता रहा करतें हैं
हमारे यहाँ तो अब पर्वतों पर
पत्थर उगा करते हैं !!-------------------ahut achchee bhavpurn kavita i
आदरणीय भाई हरी प्रकाश जी , इस सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई .
शिशिर जी , रचना पर आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार !
आदरणीय हरिवल्लभ शर्मा सर ,सार्थक , बौद्धिक और विचारणीय प्रतिक्रिया के लिए आपका अतिशय हार्दिक आभार !
आदरणीय Hari Prakash Dubey जी बहुत सुन्दर रचना आपकी , सामाजिक राजनैतिक विकृतियों का प्रभाव मनुजमन पर चिंतन पर होना सहज है..आपकी कलम से यह मर्म निकला है..सब नष्ट प्राय हो रहा ..
खुशनसीब हो तुम्हारे यहाँ
देवी और देवता रहा करतें हैं
हमारे यहाँ तो अब पर्वतों पर
पत्थर उगा करते हैं !!...सुन्दर रचना हेतु बधाई आपको...सादर.
आपका बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश जी !
सोचता हूँ कभी कभी ,
पत्थर न होते तो शायद
आदमी भी पत्थर न होते ,
सिर्फ आदमी होते।.....क्या खूब कहा आपने .. आदरणीय विजय शंकर सर , रचना पर आपकी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार ! सादर
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