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पत्नी या प्रेमिका

चांद जैसी नहीं

सचमुच चाँद होती है

कभी लगती हेम जैसी

कभी देवि कालिका 

कभी अंधकार

कभी मानस मरालिका

अंतस में अमिय-घट

स्वर्गंगा पनघट

राका एक छली नट

अभ्र बीच नाचे तू

चपला का शुभ्र पट 

स्वयं में मगन  इतना

शीतल तू आह कितना

सताये न अगन

चातक भी बैठा चुप   

सहेजे निज लगन  

सोलह कला चाँद में

अहो ! षोडश शृंगार में

अरे—रे--- यह क्या बखेड़ा

चौबीस दिन छोड़

पूरे साल मुंह टेढ़ा

नियति का खेला

अहो सांध्य बेला

पति कहो, प्रेमी कहो

निपट अकेला !

हाय, चाँद अलबेला !

(मौलिक/अप्रकाशित )

 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 3, 2014 at 12:22pm

हरि प्रकाश जी

आपके प्रोत्साहन का आभार

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 3, 2014 at 12:21pm

राम शिरोमणि जी

आपका आभारी हूँ  i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 3, 2014 at 12:20pm

श्याम नारायन जी

आपका आभार  i

Comment by Hari Prakash Dubey on December 2, 2014 at 1:09pm

पति कहो, प्रेमी कहो

निपट अकेला !

हाय, चाँद अलबेला !...बहुत ही शानदार ,हार्दिक बधाई डॉक्टर साहब ! सादर !

Comment by ram shiromani pathak on December 1, 2014 at 9:20pm
आहा भावनाओं को सुन्दर शब्द मिले है।।बहुत बधाई
Comment by Shyam Narain Verma on December 1, 2014 at 2:31pm

बहुत सुंदर और अनुपम रचना अभिव्यक्ति  के लिए  हार्दिक  बधाई  

सादर....................

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