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काश मैं ऐसा कर पाती .....गीत

'काश मैं ऐसा कर पाती'

जाने अनजाने पीड़ा ,
जो दी थी मैने माँ को
सारे दुःख वो हर पाती
काश मैं ऐसा कर पाती।....

पाई सुरक्षा तन तेरे , माँ लहू से पोषण मिलता
मुझसे पीड़ा पाकर भी , मुखड़ा तेरा खिल उठता
उफ कितनी पीड़ा दी जब , जगती में मुझे था आना
भूल असह्य वेदना माँ , कहती थी मुख दिखलाना
माँ तेरा वह दिव्य रूप
मैं सदैव याद रख पाती।......काश..

आदत पड़ी पुरानी माँ , तुझसे सब कुछ पाने की
तेरा जीवन कैसा भी , है महिमा बस गाने की
तेरी पीड़ा में शामिल , मैं भले नहीं हो पाती
सलवट मेरे माथे की , तेरे आंसूं बन जाती
माँ की मौन वेदना पर
मैं कभी मरहम धर पाती ।.......काश

नीड़ अमिट ना रह पाते , ना ही पंछी रूकते हैं
तृण के हर एक जोड़ों को , माँ के सपने बुनते हैं।
मानव से कमतर प्राणी , भी नहीं मांगते प्रतिफल
कद छोटा ना करती माँ , फैलाकर अपना आँचल
दुनियाँ की खुशियाँ तेरे
सभी आँचल में भर पाती ।........काश

कितनी रातें जागी माँ , कितने दिन खोए प्यारे
गणित लगाऊँ कैसे मैं , हैं जोड़ बाकि सब हारे
है विधान ना कोई माँ , मुक्ति का तेरे ऋण से
माँ बस केवल माँ होती , तू परे है ऋण उऋण से
माँ तेरे सभी सजीले
वो दिन औ रात लौटाती ।..........काश
सीमा हरि शर्मा 27.09.2014
मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by seemahari sharma on October 5, 2014 at 8:35pm
ह्रदय से आभार आपका Laxmam Dhamiजी आपकी प्रतिक्रिया से रचना को प्रोत्साहन मिला
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 2, 2014 at 12:19pm

आदरणीया सीमाहरि जी इस बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई ।

Comment by seemahari sharma on September 30, 2014 at 4:21pm
बहुत बहुत शुक्रिया Mahima Shree जी आपकी भावनाओं को मेरी रचना ने प्रभावित किया
Comment by seemahari sharma on September 30, 2014 at 4:03pm
Pawan Kumarजी बहुत बहुत धन्यवाद आपने रचना को सराहा
Comment by MAHIMA SHREE on September 30, 2014 at 12:02pm

कितनी रातें जागी माँ , कितने दिन खोए प्यारे
गणित लगाऊँ कैसे मैं , हैं जोड़ बाकि सब हारे
है विधान ना कोई माँ , मुक्ति का तेरे ऋण से
माँ बस केवल माँ होती , तू परे है ऋण उऋण से.....बेहद ह्रदयस्पर्शी ..सच में मान के ऋण से कभी भी उऋण नहीं हुआ जा सकता ..हार्दिक बधाई आदरणीया सीमाहरी जी 

Comment by Pawan Kumar on September 30, 2014 at 11:20am

माँ के प्यार और समर्पण का कोई मोल नही, उसके सारे दुःख दर्द हर लेने की चाह तो होती ही है!
काश सभी में ऐसी भावना होती, ऐसी चाह होती!
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, मन को छु गया!
आदरणीया, सादर बधाई!

Comment by seemahari sharma on September 30, 2014 at 2:21am
मेरी रचना के भावों ने आपके ह्रदय को छुआ रचनाकर्म सफल हुआ बहुत बहुत आभार भाई जितेन्द्र 'गीत' जी।
Comment by seemahari sharma on September 30, 2014 at 2:17am
बहुत बहुत आभार Shyam Narain Verma जी।
Comment by harivallabh sharma on September 30, 2014 at 12:58am

माँ के ऋण से कौन कब उऋण हो पाया ...माँ को समर्पित उत्तम नवगीत..आपका...बधाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 29, 2014 at 11:06pm

बहुत सुंदर पंक्तियाँ लिखी आपने आदरणीया सीमा हरी जी. शायद! हम अपनी खाल की जूतियाँ भी बनाकर माता-पिता को पहना दे, तब भी उनका कर्ज नही उतार सकते. बधाई स्वीकारें

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