आसमानी फ़ासले
बच्चों-सा स्वप्निल स्वाभाविक संवाद
हमारी बातों में मिठास की आभाएँ
ताज़े फूलों की खुशबू-सी निखरती
सुखद अनुभवों की छवियाँ ...
हो चुकीं इतिहास
समय-असमय अब अप्रभाषित
शून्य-सा मुझको लघु-अल्प बनाती
अस्तित्व को अनस्तित्व करती
निज अहं को आदतन संवारती
आलोचनाशील असंवेदनशीलता तुम्हारी
अब बातें हमारी टूटी कटी-कटी ...
बीते दिनों की स्मर्तियाँ पसार
मानवीय उलझनों के पठार
कर देते बेहद उदास
टूटे विश्वासों के विक्षोभों की अनथक गहरी पीर
इस पर भी सौन्दर्य-संध्या में मंदिर में
तुम्हारे लिए नित्य अनवरत अनंत प्रार्थना
सुख की याचना
अकेली-सुनसान रातों जलती है ढिबरी
राख रिश्ते की वीरानी
हथेली पर अशेष
जलते गर्म फफोले
तुम्हारी पहचान से अनदेखी
चट्टानी चोट
ज़िन्दगी की दलदल
फूटते कसकते बुलबुले
ठोकर से अकुलाते
पैर-अंगूठे के उखड़े नख का दर्द ...
--------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
//Nostalgia का भी अपना महत्त्व है i उसमे कसक है , पीड़ा है और निर्वेद भी//
कविता के मर्म को आपके शब्दों ने आंगिकार किया है। आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय गोपाल नारायन जी।
//खूबसूरत भावों से रची इस रचना के लिए हार्दिक बधाई//
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय आशुतोष जी।
अकेली-सुनसान रातों जलती है ढिबरी
राख रिश्ते की वीरानी
हथेली पर अशेष
जलते गर्म फफोले......कितना दर्द है इनमें कितनी सारी यादें उभर आती है एक साथ....आपका लेखन हर बार नया और अद्भुत होता है ....बहुत बहुत गहरी रचना और उसके अनकहे भाव ....बहुत बहुत बधाई और नमन आपको ....
बीते दिनों की स्मर्तियाँ पसार
मानवीय उलझनों के पठार
कर देते बेहद उदास
टूटे विश्वासों के विक्षोभों की अनथक गहरी पीर
इस पर भी सौन्दर्य-संध्या में मंदिर में
तुम्हारे लिए नित्य अनवरत अनंत प्रार्थना
सुख की याचना
उम्मीद पर दुनिया कायम है ...इसलिए प्रयास जरूरी है. सुन्दर रचना आदरणीय विजय निकोर जी.
फिर से एक पठनीय रचना आपकी और से आई , कुछ देर ठिठकने को मजबूर करती सी ..बहुत- बहुत बधाई आ० विजय निकोर जी
आपकी सभी रचनाए वेदना भरे स्वर लिए रची होती है फिर चाहे वह अभिव्यक्ति विगत के काल के ग्रास से निकली हो या
स्वप्निल विचारों का प्रवाह बन उभरी हो | यह रचना भी निर्वाद रूप से उसकी कड़ी में जुडती है | हार्दिक बधाई
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , बहुत सुन्दर लगी आपकी रचना , दिली बधाई स्वीकार करें |
श्रद्धेय,
बहुत दिनों बाद आपकी रचना पर प्रतिक्रिया दे रहा हूँ...इसलिए नहीं कि आपकी रचनाएँ पढ़ता नहीं हूँ....इसलिए कि पढ़कर अभिभूत हो जाता हूँ, अपनी लेखनी अशक्त हो जाती है. आज भी कुछ कहने से सकुचा रहा हूँ. समय के साथ इंसानी व्यवहार के बदलते अंदाज़ को जिस कलात्मक अंदाज़ से आपने चित्रित किया है उसमें एक ही साथ आँखों से आँसू और होठों के कोर से तिर्यक मुस्कान को टपकते हुए देख रहा हूँ. साधुवाद...आपकी लेखनी को नमन. सादर.
आदरणीय निकोर जी
सुखद अनुभवों की छवियाँ ...
हो चुकीं इतिहास--------------------- और फिर
बीते दिनों की स्मर्तियाँ पसार
मानवीय उलझनों के पठार
कर देते बेहद उदास
Nostalgia का भी अपना महत्त्व है i उसमे कसक है , पीड़ा है और निर्वेद भी i सादर i
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