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रमेश अपने बेटे व् त्यौहार पर आई हुई अपनी बहन के बेटे को, लेकर बाजार गया था, उसकी बहन कल अपने घर जाने वाली है. सोचा शायद उसके बेटे को कुछ दिलवा दिया जाये, उसे कुछ सस्ते से कपडे  एक दुकान से दिला लाया है. बहन के बेटे ने भी निसंकोच उन्हें स्वीकार कर लिया.  बाजार में रमेश का बेटा जिद करता रहा पर ,  उसने   अपने बेटे को कुछ नही दिलवाया है ...

“ पापा..!! मुझे तो वो ही वाले ब्रांड के कपडे चाहिए जो मैंने पसंद किये थे, कुछ भी हो उसी दुकान से दिलवाना पड़ेगा आपको..” रमेश के बेटे ने,  रमेश से कहा

 

“ बेटा!! इधर आओ, सुनो! जरा मेरी बात.. हम तुम्हे कल वो ही कपड़े दिला लायेंगे, जरा तुम्हारी भुआ को चले जाने दो उनके घर. आज इसलिए तुम्हे वो कपडे नहीं दिलवाए क्युकी वो महंगे थे. फिर भुआ के बेटे को भी....” रमेश ने बड़े ही प्यार से अपने बेटे को पास बुलाकर धीरे से कहा

 

   

      जितेन्द्र ‘गीत’

(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 1, 2014 at 11:03pm

लघुकथा पर आपकी बधाई सहर्ष स्वीकार है, आदरणीय सौरभ जी.आपका ह्रदय से आभार , स्नेह व् मार्गदर्शन बनाये रखियेगा

सादर !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 1, 2014 at 2:25pm

वाह ! 

परिवार के सदस्यों की आम हो गयी एक घृणित मनोदशा को सुन्दर शब्द मिले हैं
बधाई

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 30, 2014 at 11:05pm

 आदरणीय डा.गोपाल जी, आपका कहना मैं बिलकुल समझ गया. किन्तु एक ओर बात मुझे अक्सर देखने को मिली है कि जब माता -पिता अपने १०-१५ वर्षों के बच्चों के साथ जब अपना जीवन व्यतीत करते है तब वो हमेशा सारे रिश्तेदारों या समाज से कुछ दूर से हो जाते है. उस समय के चलते शायद वो अपनी दुनिया में ऐसे मगन रहते है कि सब कुछ भूलने की कगार पर पहुँच जाते है. किन्तु जब उन्हें आगे चलकर उन्ही लोगों की आवश्यकता पड़ती है तो अपने आप को असुरक्षित सा समझने लगते है. यह मेरी सोच भी हो सकती है कृपया अपना प्रतिउत्तर देंगें तो बड़ी मेहरबानी होगी. स्नेह व् आशीर्वाद बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 30, 2014 at 5:09pm

जीतू जी

सत्य है पर कटु i  हम सब यही करते हैं I  सोचते है दान पर क्यों  व्यर्थ धन गवायें i परिश्रम से अर्जित पूंजी अपने परिवार पर लगे i यह ऐसा इसलिए भी है कि एक अगर उदार बन भी जाय तो  समाज से उसे वह उदारता नहीं मिलती I  जब सारा समाज ही अनुदार है तो  हमी क्यों उदार बने i  बहुत सी बाते हैं समझने के लिए i

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 30, 2014 at 2:19pm

आदरणीय शुभ्रांशु जी, लघुकथा पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ. आप सही कह रहे हैं आजकल एक तराजू ही जो सब कुछ तौल रहा है. शुरुआत भी हो चुकी है उस बच्चे के मन में यह भर दिया गया है की जब जब रिश्तेदार आते है उसकी स्वतंत्रता भंग होगी और उसे समझोते भी करने पड़ेंगे. बस अगली बार से वो स्वयम दूरियां बनाने लगेगा. स्नेह व् मार्गदर्शन बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 30, 2014 at 2:09pm

लघुकथा पर आपकी गहन पाठक धर्मिता हेतु आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीया राजेश दीदी. बस यही ओपचारिकता सिर्फ ओपचारिकता बनकर रह जाती है आज भी और कल जब आपका समय आएगा तब भी. स्नेह बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by Shubhranshu Pandey on August 30, 2014 at 10:58am

आदरणीय जितेन्द्र जी.

सुन्दर कथा.बधाई.

कथा का शीर्षक अपने आप में कथा के पक्ष को बताता है.  अपने और बहन के लड़के के बीच दूरी की शुरुआत उसी समय से हो गयी.

किसी भी सम्बन्ध में जब प्यार और सम्मान को नापने की तराजु उपहार के दाम हो जायें तो सम्बन्ध फ़िर अत्मीय नहीं रह जाते बस निभाये जाते हैं.

सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 29, 2014 at 9:29pm

आपने घर घर की कहानी की एक कमजोर नब्ज को पकड़ा है रिश्ते औपचारिकता भर रह गए हैं दोहरी मानसिकता ,स्वार्थ के आगे रिश्ते दम भरते हैं ,इस लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई 

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