प्रेम दीपक
बंधन में मत बाँध सखी
उन भावों को
जो नित-नित
मानसपट पर चित्रित होते हैं –
स्वप्नों के छंद में बाँध सखी
उन छंदों को
जो पलकों पर पुलकित, अधरों पर बिम्बित होते हैं.
नयनों से ढुलके जो दो-चार बूँद सखी
अपने हिय के पत्र-पुष्प पर
टल-मल-टल
उनमें अपनी किरणों को पिरो देना
मेरी पीड़ा के होमकुण्ड में गंगाजल.
जब आग बुझे, कुछ राख उड़े
तम छाए सखी,
उस नीरव हाहाकार को तुम कुचल देना
स्वप्निल रातों में विधु का जब अट्टहास उठे
अपने हृदय के सघन वाष्प से ढँक देना.
अंतिम प्रहर में पल्लव-पुट पर आँसू बरसे
समाधि पर मेरे तुम धीरे से आना
जो दीप नहीं जला सकी हो जीवन में,
प्रिये, एक बार
बस एक बार,
समाधि पर मेरी यूँ ही जला देना.
.
(मौलिक तथा अप्रकाशित)
Comment
इस बहुत ही सुन्दर भावमय रचना के लिए बधाई।
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