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ग़ज़ल -- ये गलियाँ शाह राहों से मिलेंगी ( गिरिराज भंडारी )

1222      1222      122  

कहीं अब  झाँकती है रोशनी भी

कहीं बदली लगी  थोड़ी हटी भी

 

शजर अब छाँव देने लग गये हैं

फ़िज़ा में गूंजती है अब हँसी भी

 

निशाँ पत्थर में पड़ते लग रहे हैं

अभी है रस्सियों में जाँ बची भी

 

जहाँ चाहत मरी घुट घुट, वहीं पर

नई चाहत कोई दिल में पली भी

 

मिलेंगी शाह राहों से ये गलियाँ

गली से रिस रही है ये खुशी भी

 

मरे से ख़्वाब करवट ले रहे हैं

नज़र आने लगी है ज़िन्दगी भी

 

ये कैसा वक़्त है, क्या नाम दूँ मै

ख़ुदी भी है सलामत , बेख़ुदी भी

 ******************************** 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 8, 2014 at 7:29pm

आदरणीया प्राची जी , आपकी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिये आपका हृदर से आभारी हूँ ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 8, 2014 at 3:26pm

बहुत खूबसूरत अश'आर हुए हैं आ० गिरिराज भंडारी जी 

इन दो अशआर ननें अपनी मुलायमियत और निहित भावों से बहुत प्रभावित किया 

जहाँ चाहत मरी घुट घुट, वहीं पर

नई चाहत कोई दिल में पली भी

मरे से ख़्वाब करवट ले रहे हैं

नज़र आने लगी है ज़िन्दगी भी

हार्दिक बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 7, 2014 at 10:09am

आदरनीय सौरभ भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2014 at 3:54am

बहुत खूब आदरणीय !

निशाँ पत्थर में पड़ते लग रहे हैं

अभी है रस्सियों में जाँ बची भी.. . . ग़ज़ब !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 30, 2014 at 6:03pm

आदरणीया राजेश जी , ग़ज़ल पर आपकी विस्तृत  गम्भीर चर्चा देख कर मन खुश हो गया । आपकी सलाह भी उचित है , तकाबुले रदीफ दोष दिख रहा है , अभी सुधार कर लेता हूँ ॥ सराहना और सलाह के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 29, 2014 at 1:44pm

कहीं अब  झाँकती है रोशनी भी

कहीं बदली लगी  थोड़ी हटी भी-----वाह खूबसूरत द्रश्य उकेरा है 

 

शजर अब छाँव देने लग गये हैं

फ़िज़ा में गूंजती है अब हँसी भी----बहुत सुन्दर 

निशाँ पत्थर में पड़ते लग रहे हैं

अभी है रस्सियों में जाँ बची भी ----जबरदस्त शेर .....किन्तु एक संशय है अभी है के साथ बची भी ठीक नहीं लग रहा या तो बची हुई होना था जो यहाँ रदीफ़ के अनुसार नहीं हो सकता 

तो इसका निवारण -----दिखी है /रही है --रस्सियों में जाँ बची भी -----हो सकता है    (ये मेरी निजी सोच है कृपया अन्यथा न लें ,शेर बहुत ही खूबसूरत है इसमें दो राय नहीं है )

जहाँ चाहत मरी घुट घुट, वहीं पर

नई चाहत कोई दिल में पली भी------कमाल- कमाल 

 

ये गलियाँ शाह राहों से मिलेंगी------मिलेंगी शाह राहों से ये गलियाँ,---उसी से /तभी तो ----रिस रही है ये ख़ुशी भी ---करें तो ?

गली से रिस रही है ये खुशी भी----- तकाबुले रदीफ़ ???

 

मरे से ख़्वाब करवट ले रहे हैं

नज़र आने लगी है ज़िन्दगी भी---सुभानल्लाह क्या कहने 

 

ये कैसा वक़्त है, क्या नाम दूँ मै

ख़ुदी भी है सलामत , बेख़ुदी भी-----शानदार 

बहुत बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है आ० गिरिराज जी ढेरों दाद कबूलें 

 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 28, 2014 at 6:05pm

आदरणीय राम अवध भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 28, 2014 at 6:04pm

आदरणीय नरेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on June 28, 2014 at 5:12pm

उम्दा गजल के लिये एवं अन्त तक रदीफ को शलीके से निर्वहन के लिये हार्दिक बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 28, 2014 at 10:34am

आदरनीय जितेन्द्र भाई , आपकी सराहना हमेशा मेरा उत्साह वर्धन करते आई है , आपके स्नेह के लिये आपका आभारी हूँ ॥

कृपया ध्यान दे...

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