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“ आज का मैच तो बड़ा रोमांचक है यार, बड़े जबर्दस्त फार्म में  है टीम...”

“अरे हाँ यार!   तेरे घर  तो मैच देखने का आनंद ही अलग है, पर यार ये अन्दर से कराहने की आवाज तेरी मम्मी की आ रही है क्या..?”

“ आने दे यार!  वो तो उनकी रोज की आदत है, बूढी जो हो गई है थोड़ी देर में सो जाएँगी. तू तो मैच देख  मैच”

 

              जितेन्द्र ’गीत’

      ( मौलिक व् अप्रकाशित )

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on June 17, 2014 at 9:25pm

लघुतम कथा गुरुतम् सन्देश……  


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Comment by rajesh kumari on June 17, 2014 at 8:57pm

उफ्फ्फ कुछ कहते नहीं बनता .....इतनी असंवेदनशीलता कहाँ से आ गई आज के खून में ....

लघुकथा अपनी बात रखने में ,प्रभावित करने में कामयाब है |

बहुत- बहुत बधाई जितेन्द्र भैय्या |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 17, 2014 at 8:31pm

जीतेन्द्र जी 

संवेदना की उम्र कम होतीजा रही है i स्थाई बीमारी वाले मरीज कुछ दिन संवेदना के पात्र रहते है i फिर जैसे लोग used to हो जाते है  i यह तो रोज की बात है  i हम भी यह अपराध करते है  कभी जाने में कभी अनजाने में i

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 17, 2014 at 7:51pm
वाह ! संवेदन-शून्यता पर लेखक की सवेदनशीलता , सराहनीय .
बधाई.
सादर.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on June 17, 2014 at 6:21pm

जज़्बात न जाने कहाँ गुम हो गये हैं माँ का कर्ज़ कोई नहीं उतार सकता है ये बात ऐसे लोग कब समझेंगे।

Comment by coontee mukerji on June 17, 2014 at 5:00pm

...कुछ नहीं कहा जाता......सादर

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