रात अंधड़ में
छितराए फूस के छप्पर को
करना है दुरस्त
लेकिन समय कहाँ
अभी तो जाना है काम पर
फिरसे फूल आये पेट में
कुलबुला रहा है जीव
अनमनी सी कराह रही घरवाली
रांध नही पाती भात...
भूखे पेट पैडल मारता भूरा
टुटही साइकिल खींच रहा
ससुरी चैन साईकिल की
काहे उतरती बार-बार
भूरा बेबस-लाचार,
ठीकेदार का मुंशी भगा देगा उसे
जो देर से पहुंचा वो...
लड़ भी तो नही सकता
भगा दिया गया तो
डूब जायेगी तीन माह की मजूरी
भूरा नही जानता
कि आज मजदूर दिवस है
आज तमाम मजदूर-विरोधी प्रतिष्ठानों में
मजदूरों के योगदान और बलिदान पर
बोलेंगे अभिजात्य मजदूर नेता
और शोषक धन्नासेठ मालिक...
(मौलिक अप्रकाशित )
Comment
इस सुन्दर प्रस्तुति हेतु ह्रदय से अभिनन्दन स्वीकार करें आदरणीय
ऐसे ही पाखण्डों पर कविता का यह स्वरूप प्रहार करे. धरती की महक से गमक रही इस कविता पर दिल से बधाई, आदरणीय सुहैल भाई.
सादर
एक मेहनतकश मजदूर की वेदना बयाँ करती रचना प्रस्तुति के लिए बधाई श्री अनवर सुहैल भाई
बहुत कड़वी सच्चाई है...सादर.
आदरणीय सुहैल भाई, एक मजदूर की विवस्ता को भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए कोटि कोटि नमन .
विशेष सन्दर्भ को इंगित करती एक सशक्त और सार्थक रचना के लिये दिल से बधाई आदरणीय anwar suhail साहब। कवि मन में इस प्रकार के ज्वलंत विषयो का प्रस्फुटन पुरातन से आधुनिक काल तक समाज को नई सोच और दिशा देता रहा है। यही भाव बनाये रखें। शुभकामनाएँ।
आदरणीय सुहैल भाई ,बहुत अच्छे चित्र खींचे है आपने, रचना के माध्यम से मज़दूरों के दर्द को बयाँ किया है ढेरों शुभकामनायें ...
सच्चाई बयान करती कविता हममें से कई लोगों को तो मालूम ही नहीं है कि हमारे अधिकार क्या हैं यदि जागरुकता आ जाये तो शोषण में कमी आ सकती है आदरणीय सुहैल सर रचना के कथ्य के लिये बहुत बहुत बधाई
बहुत सुन्दर ॥ अतुकांत रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ |
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