कभी जिस जगह हम मिले थे
जहाँ फूल मुहब्बत के खिले थे
मैं आज भी खड़ा हूँ उसी मोड़ पर
जहाँ तुम गये थे मुझे छोडकर
हँसी से कोई ऱिश्ता नहीं है
खुशी से दूर तक वास्ता नहीं है
जमाने की कितनी परवाह थी मुझे
अब जमाने की भी कोई परवाह नहीं है
गुजरते हैं लोग इस चौरेहे से
तेरी चर्चा करते हुये
मैंने बहुत को देखा है
तेरे लिये आह भरते हुये
लेकिन उनकी आह भरने पर
मुझे तरस जरूर आता है
किआज भी हर कोई शख्स
तुझे पहचान नहीं पाता है
तेरे लुटे हुये को
मैं कुछ आसरा देता हूँ
इसी बहाने आज भी
तेरा हाल जान लेता हूँ
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत सुंदर रचना ,हार्दिक बधाई आपको आदरणीय उमेश जी
शुक्रिया डा.आशुतोष मिश्रा जी
शुक्रिया अखिलेश कृष्ण जी
आदरणीय उमेश भाई
यह मात्र कविता नहीं , बहुतॉं का यथार्थ है, हार्दिक बधाई
कभी जिस जगह हम मिले थे
जहाँ फूल मुहब्बत के खिले थे
मैं आज भी खड़ा हूँ उसी मोड़ पर
जहाँ तुम गये थे मुझे छोडकर
हँसी से कोई ऱिश्ता नहीं है....manbhavan is shandar rachna ke liye tahe dil badhaaayee saadar
शुक्रिया कुन्ती मुखर्जी मैम आपका तहेदिल से शुक्रिया
शुक्रिया श्याम जी
शुक्रिया अखण्ड गहमरी जी
शुक्रिया रमेश जी
आदरणीय कटाराजी इस सुंदर रचना के लिये बधाई
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