तोड़ नीड़ की परिधि
सारी वर्जनाएं
भुला नीति रीति
लांघ कर सीमाएं
छोड़ संयम की कतार
दे परवाज़ को विस्तार
वशीकरण में बंधा
लिए एक अनूठी चाह
कर बैठा गुनाह
लिया परीरू चांदनी का चुम्बन
जला बैठा अपने पर
उसकी शीतल पावक चिंगारी से
गिरा औंधें मुहँ
नीचे नागफनी ने डसा
खो दिया परित्राण
ना धरा का रहा
ना गगन का
बन बैठा त्रिशंकु
वो उन्मत्त परिंदा
**************
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आ० लक्ष्मण प्रसाद जी, आपकी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया हेतु हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ.
बन बैठा त्रिशंकु
वो उन्मत्त परिंदा - वाह ! बहुत सुन्दर/अनुपम रचना के लिए हार्दिक बधाई
आ० धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी आपने रचना के मर्म को समझने की कोशिश की अच्छा लगा ,आपने जिस बात को इंगित किया शायद आपने ध्यान नहीं दिया की तोड़ नीड़ की परिधि के बाद अगला वाक्य ही इस बात की पुष्टि कर रहा है की परिंदा किस आशय से नीड़ की परिधि तोड़ रहा है पहले मान्यताएं लिख रही थी कितु वो सपाट हो जाती और आगे के वाक्यों में रिपीटेशन हो जाता ,अंतिम बात नागफनी ने डसा ,बेशक नागफनी जमान पर होती है किन्तु उसके काँटे शीर्ष पर भी होते हैं जहाँ परिंदा फंस सकता है ,खैर ये तो परिंदे की बात हुई ,कितु परिंदे का बिम्ब लेकर इशारा किस और है हर कवी ह्रदय पहचान/समझ ही लेगा त्रिशंकु अर्थात घर का न घाट का .....यही भाव हैं दुबारा पढेंगे तो शायद रचना और स्पष्ट होगी.
आदरणीया राजेश कुमारी जी,
कविता अच्छी हो सकती थी मगर कुछ तथ्यगत त्रुटियाँ हैं जैसे
(यहाँ मैं ये मानकर चल रहा हूँ कि ये त्रुटियाँ जानबूझकर कविता को विशेष अर्थ देने के लिए नहीं की गई हैं)
तोड़ नीड़ की परिधि - नीड़ की परिधि तो ज़िंदा रहने के लिए ही तोड़नी पड़ जाती है, परिंदा चुगने नहीं जाएगा तो ज़िंदा कैसे रहेगा
सुझाव - वायुमंडल की परिधि कर सकती हैं
नागफनी जमीन पर होती है मतलब परिंदा जमीन पर गिर गया - तो त्रिशंकु कैसे हुआ?
ये तो आपको ही ठीक करना होगा
नीरज कुमार नीर जी रचना आपको पसंद आई मेरा लेखन कर्म सफल हुआ हार्दिक आभार आपका.
आदरणीय गिरिराज जी, आपको रचना ने प्रभावित किया मेरा लिखना सार्थक हुआ हृदय तल से आभारी हूँ.
आ० ओमप्रकाश जी, रचना की सराहना के लिए बहुत- बहुत आभार.
आदरणीय विजय मिश्र जी, आपको रचना पसंद आई --"तुमने चिंगारी क्या दिखलायी ,मैंने अपना आशियाना ही फूँक डाला |"..हाँ सही कहा आपने. जो अपनी मर्यादाओं के दायरे तोड़ते हैं उनका हश्र यही होता है बस इसी भाव को पिरोया है शब्दों में.आपका हार्दिक आभार.
बहुत ही सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई ..
आदरणीया राजेश जी , सुन्दर प्रवाह मयी कविता के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ आदरणीय विजय मिश्र भाई जी से पूर्ण रूप से सहमत हूँ , पुनः बधाइयाँ ॥
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online