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क्यों चले आए शहर (नवगीत) - कल्पना रामानी

क्यों चले आए शहर, बोलो 

श्रमिक क्यों गाँव छोड़ा?

 

पालने की नेह डोरी,  

को भुलाकर आ गए।

रेशमी ऋतुओं की लोरी,

को रुलाकर आ गए।

 

छान-छप्पर छोड़ आए,

गेह का दिल तोड़ आए,

सोच लो क्या पा लिया है,

और  क्या सामान जोड़ा?

 

छोडकर पगडंडियाँ

पाषाण पथ अपना लिया।

गंध माटी भूलकर,

साँसों भरी दूषित हवा।

 

प्रीत सपनों से लगाकर,

पीठ अपनों को दिखाकर,

नूर जिन नयनों के थे, क्यों

नीर उनका ही निचोड़ा?    

 

है उधर आँगन अकेला,

और तुम तन्हा इधर।

पूछती हर रहगुज़र है,

अब तुम्हें जाना किधर।

 

राज जिनसे मिला चोखा,

क्यों  उन्हें ही दिया  धोखा?

विष पिलाया विरह का,

वादों का अमृत घोल थोड़ा।

 

भूल बैठे बाग, अंबुआ

की झुकी वे डालियाँ।

राह तकते खेत, गेहूँ

की सुनहरी बालियाँ।

 

त्यागकर हल-बैल-बक्खर,

तोड़ते हो आज पत्थर,

सब्र करते तो समय का,

झेलते क्यों क्रूर कोड़ा?

मौलिक व अप्रकाशित

कल्पना रामानी

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Comment

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Comment by कल्पना रामानी on December 17, 2013 at 10:17pm

 

आदरणीय राजेश जी, यह रचना कुछ हटकर अवश्य है लेकिन हम जो अपने आसपास देखते हैं वही भाव कविता में आते ही हैं। यह गीत उन के लिए नहीं है जो मजबूरी में मजदूरी करने शहर आते हैं। जो सब कुछ होते हुए भी सिर्फ शहरों की चकाचौंध से आकर्षित होकर घरों से पलायन करते हैं फिर चाहे मजदूरी ही क्यों न करनी पड़े।“प्रीत सपनों से लगाकर,पीठ अपनों को दिखाकर यह उनके लिए ही संदेश है जो अंतिम पंक्ति में स्पष्ट है सब्र करते तो समय का झेलते क्यों क्रूर कोडा”

मैंने कोशिश तो यही की है अब पाठक ही बता सकते हैं कि कुछ स्पष्ट कर पाई हूँ या नहीं। रचना पर आने और गौर करने के लिए हार्दिक धन्यवाद।

सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on December 17, 2013 at 5:02pm

आदरणीय कल्‍पना दी,  जहां तक मैंने आपको पढ़ा है आपकी रचना अपनी भाव दशा में काफी समृद्ध हुआ करती है पर इस प्रस्‍तुति में वह एकांगी क्‍यों हुई यह समझ नहीं पाया । श्रमिक या कोई भी यूं ही नहीं सबकुछ छोड़ आता, उसके पीछे अनेक कारण रहे होते हैं  और मुझे ये चीजें कम से आपको बताने की आवश्‍यकता तो नहीं ही है । आप स्‍वयं इन पंक्तियों पर चिंतन करें

जिनसे पाया राज चोखा,

दे दिया उनको ही धोखा,

प्रीत सपनों से लगाकर,

पीठ अपनों को दिखाकर,

Comment by Tapan Dubey on December 17, 2013 at 4:33pm
आदरणीया कल्पना जी, भावनाओ को किस खूबसूरती से शब्दो में पिरोया है आपने बहुत खूब.… एक खूबसूरत रचना के लिए बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 17, 2013 at 4:03pm

आदरणीय कल्पना जी , बहुत सुन्दर नवगीत के लिये आपको बधाई ॥

Comment by Meena Pathak on December 17, 2013 at 3:22pm

नमन आप को दी | सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 17, 2013 at 2:59pm

वाह वाह रामानी जी

क्या बात है  ?  भाव नहीं, पूरी भावो की सेज है i  उतना ही सुन्दर कथ्य  और सन्देश  i

आपकी लेखनी को प्रणाम i

Comment by Sushil Sarna on December 17, 2013 at 1:43pm

प्रीत सपनों से लगाकर,

पीठ अपनों को दिखाकर,

नूर जिन नयनों के थे, क्यों

नीर उनका ही निचोड़ा।    ......aa.Kalpna jee badalte smay men gaanv se plaayan ka bdaa hee maarmik aur hridy sparshee chitr aapne prastut kiya hai.....is tees men aik seekh hai.....is sundr prastuti ke liye aapko haardik naman

Comment by वीनस केसरी on December 17, 2013 at 3:03am

वाह अद्भुत नवगीत है

कृपया ध्यान दे...

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