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बताशा लगती हो तुम

बताशा लगती हो तुम

.

हिंदी के समान प्यारी, कोमल, सुरीली, मृदु,

घोले जो मिठास ऐसी भाषा लगती हो तुम,

जीवन में नीरसता, जैसे चहुँ ओर फैले,

तिमिर निराशाओं में आशा लगती हो तुम,

आँखें मूँद कर मृतप्राय हुए चित में यूँ,

सुंदर, सजग अभिलाषा लगती हो तुम,

नेह भरी देह का जो, रस पियूँ घोल-घोल,

चाशनी में डूबा सा बताशा लगती हो तुम।

----------------------------------- सुशील जोशी

“मौलिक व अप्रकाशित”

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 9, 2013 at 2:09pm

सुन्दर बिम्बों से प्रियतमा की तारीफ़ हुई है | सुंदर रचना के लिए बधाई 

Comment by annapurna bajpai on November 9, 2013 at 1:40pm

आदरणीय सुशील जी जिस  सुंदरता से आपने अपने भावों को प्रस्तुत किया है वाह । बधाई आपको । 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 9, 2013 at 1:26pm

जोशी जी मैंने   पहली  बार किसी को  अपनी प्रेमिका हिंदी  जैसी  प्यारी कोमल सुरीली व् मृदु क्हते सुना  . यह भाव अद्भुत है . साधुवाद.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 9, 2013 at 11:31am

आदरणीय सुशील भाई , बहुत निराले ढंग से अपनी प्राण प्रिये की तारीफ की है आपने !!!! आपको बहुत बहुत बधाई !!!!

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