गीत (रिश्ते नाते हारे)
गया सवेरा, ख़त्म दोपहर, ढली सुनहरी शाम,
आँखें ताक रहीं शून्य, और मुँह में लगा विराम,
गीत, गज़ल ख़ामोश खड़े औ कविता हुई उदास,
जब सबने छोड़ा साथ,
आँसू की हुई बरसात।
मैंने भी अब मान लिया है जग की रीत पुरानी जी,
झूठ फले – फूले जीवन में, सच की हो कुर्बानी जी,
एक जिगर का टुकड़ा बनता फिर गर्दन की फाँस,
जब सबने छोड़ा साथ,
आँसू की हुई बरसात।
जीवन के इस बीच भँवर में ना डूबें, ना उतरें हम,
फूल नहीं थे, उनके दिल पर काँटे बन कर उभरे हम,
काँटे रक्षा करें फूल की, क्यों न उन्हें आभास,
जब सबने छोड़ा साथ,
आँसू की हुई बरसात।
शीत गई चंदा की अब तो, जल में अब अंगारे हैं,
चलन हुआ रुपयों का ऐसा, रिश्ते – नाते हारे हैं,
संग जानकी, राम भटकते, हुआ वही बनवास,
जब सबने छोड़ा साथ,
आँसू की हुई बरसात।
----------------------------------------- सुशील जोशी
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आशीर्वचनों के लिए आपका हार्दिक आभार आ0 विजय निकोरे जी....
रिशतों की सच्चाई को बयां करती यह रचना भावपूर्ण है... आपको बधाई।
सादर,
विजय निकोर
गीत के मर्म तक पहुँचकर अनुमोदन करने हेतु आपका कोटि कोटि धन्यवाद आ0 विजय जी.....
बहुत बहुत धन्यवाद आपका आ0 राम भाई......
ह्रदयतल से आभार आपका आ0 जितेन्द्र भाई जी....
बहुत बहुत धन्यवाद रचना पसंद कर टिप्पणी देने के लिए आ0 राजेश जी...
आदरणीय शुशील जी , बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति // बहुत बहुत बधाई///सादर
आज के अपने अपने स्वार्थ, छल, कपट को पूर्णत: स्पष्ट करते सुंदर भाव से संजोयी गीत रचना पर, बधाई स्वीकारें आदरणीय शुशील जी
इस सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई विशेषकर अंतिम चार पंक्तियों के लिए डबल बधाई, सादर
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