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सियाह रात के पर्दे में है निहाँ सा कुछ
ज़मीं से आज उठे है धुआँ-धुआँ सा कुछ
ये ज़ोर शम्अ का है जो बुझी नही शब भर
गया करीब से तूफान बदगुमाँ सा कुछ
न जाने कौन खिरामां सफ़र में था मेरे
तमाम राह चला साथ कारवाँ सा कुछ
चिराग सा कभी, आतिशबजाँ लगे है गाह
वो टिमटिमाता अँधेरों में इक मकाँ सा कुछ
ये बदलियाँ जो हटीं चाँद भी खिला तनहा
इक अर्से बाद नज़र आया शादमाँ सा कुछ
निहाँ =छिपा हुआ, खिरामां =गतिमान, आतिशबजाँ =जिसके अंदर आग हो, शादमाँ =हर्षित
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बृजेशजी, भाई सचिन जी आपका आभार
भाई रामशिरोमणि जी, अरुणजी हौसला अफ्ज़ाई के लिये आपका तहे-दिल से शुक्रिया
बहुत ही खूबसूरत गजल पर हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने! वाह! आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीय शिज्जू जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल कही है आपने सभी अशआर पसंद आये, मतले में मुझे थोड़ी उलझन महसूस हुई.
सियाह रात के पर्दे में है निहाँ सा कुछ
ज़मीं से आज उठे है धुआँ-धुआँ सा कुछ ( उठे है के साथ धुआँ-धुआँ अटपटा सा लग रहा है मेरे हिसाब से उठे की जगह उठा होना चाहिए)
इस सुन्दर ग़ज़ल हेतु दिली दाद कुबूल फरमाएं.
सियाह रात के पर्दे में है निहाँ सा कुछ
ज़मीं से आज उठे है धुआँ-धुआँ सा कुछ
ये ज़ोर शम्अ का है जो बुझी नही शब भर
गया करीब से तूफान बदगुमाँ सा कुछ
बहुत सुन्दर ग़ज़ल वाह ,,,,,,,बहुत बहुत बधाई आदरणीय भाई सिज्जू जी। ।सादर
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