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राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-६९ (तरुणावस्था-१६)

(आज से करीब ३१ साल पहले: साहित्य और आध्यात्म)

 

मैट्रिक की परीक्षा शेष होने के बाद के खालीपन में मैं अक्सरहा या तो हिंदी साहित्य की किताबे पढ़ने लगा हूँ या अध्यात्म की. दोनों ही तरह की किताबों की कोई कमी नहीं है हमारे घर में. ये मुझे मेरे नाना, मेरे पिता, मेरे मंझले चाचा, एवं मेरे बड़े भाई जो मुझसे उम्र में करीब १३-१४ साल बड़े हैं, से विरासत में मिली हैं. साहित्य में जहां टैगोर, शरतचंद्र, प्रेमचंद्र, टॉमस हार्डी जैसे कथाकारों की किताबें भरी पडी हैं वहीं अध्यात्म एवं दर्शन में वेद और पुराण से लेकर रजनीश तक की किताबें.

 

किताबें मुझे एक अलग ढंग से आकर्षित करती हैं जिसे व्यक्त करना मुश्किल है. उनमें एक विशेष महक होती है. पुरानी किताबों की अलग और नई किताबों की अलग. नई किताबों में जहां अपरिचित के कल्पित सौन्दर्य का आकर्षण बसा लगता है वहीँ पुरानी किताबों के पन्ने पलटते ऐसा प्रतीत होता है गोया हम किसी व्यक्ति, परिवार, अथवा समुदाय के जीवन के अन्तरंग प्रसंगों से गुज़र रहे हों. पूरे बदन में सिहरन सी पैदा हो जाती है कभी कभी.  

 

अध्यात्म की किताबों को पढ़ते पढ़ते मैं ध्यान करने की चेष्टा करने लगा हूँ. अकेलेपन में मैं अक्सरहा अपने आप से भी बाते करने लगा हूँ. आज भी कुछ ऐसा ही हुआ और मेरे अन्दर आत्यंतिक विचारों का एक रेला सा उमड़ पड़ा:

 

‘मेरे जीवन का एकमात्र ध्येय मोक्ष है. हम सबों के जीवन का ध्येय भी तो यही है. हम मोक्ष रूपी साध्य की अभिप्राप्ति हेतु धर्म की राह पे आगे बढ़ते हैं. इसका सीधा अर्थ है कि धर्म साधन मात्र के भाव से अंगीकार्य है. मुझे ऐसा लगता है कि धार्मिक होना और मुमुक्षु होना- दो अलग अलग बाते हैं. जो सिर्फ धार्मिक हैं उन्होंने धर्म को ही साध्य समझ लिया है और धर्म की गलियों में खो गए हैं. वे एक तरह से पाखण्ड और दिखावटीपन के मरीज़ बन के रह गए हैं. मुल्लाओं, पंडों, एवं पादरियों में से अधिकाँश को इस निकष पे कस के देखा जा सकता है. हमारी गृहिणियां भी इसका एक अन्य ज्वलंत उदाहरण हैं’.

 

मुझे पूरा विश्वास है कि जो मुमुक्षु हैं वो धार्मिक भी हैं और मनुष्यत्व के सच्चे अधिकारी भी.   

 

© राज़ नवादवी

गुरुवार, २७/०५/१९८२, जमशेदपुर  

'मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना'

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on September 20, 2013 at 4:32pm

आदरणीया महिमा जी, आपके विचारों से अवगत होकर अच्छा लगा. आपके उत्सावर्धन का हार्दिक धन्यवाद! 

Comment by MAHIMA SHREE on September 18, 2013 at 11:43pm

जो सिर्फ धार्मिक हैं उन्होंने धर्म को ही साध्य समझ लिया है और धर्म की गलियों में खो गए हैं. वे एक तरह से पाखण्ड और दिखावटीपन के मरीज़ बन के रह गए हैं. मुल्लाओं, पंडों, एवं पादरियों में से अधिकाँश को इस निकष पे कस के देखा जा सकता है. हमारी गृहिणियां भी इसका एक अन्य ज्वलंत उदाहरण हैं’..... चिंतन मनन से हमेशा सच्चाई निखर के सामने आती है ... और ये सच्चाई आपकी डायरियो में हमेशा परिलक्षित होती है ... बधाई आदरणीय राज नवादवी जी

Comment by राज़ नवादवी on September 16, 2013 at 5:29pm

आदरणीय अरुन जी, प्रस्तुति को पसंद करने का दिल से आभार. आपके विचारों से अवगत हुआ. 

Comment by राज़ नवादवी on September 16, 2013 at 5:28pm

आदरणीया राजेश जी, आपके उत्साहवर्धन का हार्दिक धन्यवाद! आपके विचारों को जानकार खुशी हुई.

Comment by राज़ नवादवी on September 16, 2013 at 5:27pm

आदरणीय भंडारी जी, आपको लेखनी पसंद आई, ये जानकार अच्छा लगा.  ख़याल साझा करने का तहेदिल से शुक्रिया. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 16, 2013 at 12:16pm

आदरणीय राज भाई , आपने मेरे हिसाब से भी सही  व्याख्या की है , हर मुमुक्षु धार्मिक जरूर होगा लेकिन धार्मिक मुमुक्षुभी हो ज़रूरी नही  है !!!    धर्म वो व्यवहार सिखाता है जिसे अपना कर हम मुमुक्षु बन सकें और साधना रत हो कर अंतिम लक्ष्य मोक्ष तक पहुंच सकें

!!! बहुत बधाई !!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 16, 2013 at 11:37am

जो सिर्फ धार्मिक हैं उन्होंने धर्म को ही साध्य समझ लिया है और धर्म की गलियों में खो गए हैं. वे एक तरह से पाखण्ड और दिखावटीपन के मरीज़ बन के रह गए हैं---

मुझे पूरा विश्वास है कि जो मुमुक्षु हैं वो धार्मिक भी हैं और मनुष्यत्व के सच्चे अधिकारी भी. --

आपकी बात शत प्रतिशत सही हैं आदरणीय राज़  जी सच्चा धर्म हमेशा अहिंसा और एकता का पाठ पढाता है जिसमे ये गुण हैं वही सच्चा धर्मी है वरना सब ढोंगी पाखंडी हैं मैं भी यही मानती हूँ ,बहुत अच्छी बात लिखी है आपने दिली बधाई आपको   

 

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 16, 2013 at 11:26am

आदरणीय राज सर आपके विचार और आपके शब्द काफी कुछ कह रहे हैं बस समझने भर की देर है, आपकी डायरी के पन्ने कदाचित मैं पहली बार पढ़ रहा हूँ और पढ़कर निःशब्द हूँ क्या कहूँ जितनी किताबें पढ़ी हैं शायद उनसे से आधी किताबों के बारे में मैं कुछ नहीं जानता होऊंगा. हार्दिक आभार आपने आपकी इस रचना से अधिक से अधिक पढ़ने की प्रेरणा मिलती है. इस प्रस्तुति के लिए आपको बधाई

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