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एक कविता आज के दौर के नाम....

पैसा है, उसका नशा है, और शोहरत है
अब कहाँ इतनी फुरसत है
लोगों के आसपास होने का अहसास नहीं होता
अपनों के खोने का डर आसपास नहीं होता


हसरतें, इतनी कि ख़त्म ही नहीं होती!
पाना ये , वो भी कि, सबर ही नहीं होती
स्नेह, प्यार, विश्वास शब्दों में अब गुजर नहीं होती


प्रकृति के नज़ारे भी लगते है फीके
क्या करेंगे उनमे भी जी के
दिलों में मरुस्थल जम रहे है
कुछ केक्टस वहां भी पनप रहे है


रिश्तों का मोल है, न प्यार के बोल है
नैतिक मूल्य ,बिक रहे बेमोल है
अजीब है! पर सब की कहानी है
अहसासों में जीना आज बेमानी है


आदमी कहाँ किस दौर में चल रहा है!
कितना बेढंगा, भद्दा लग रहा है
झूठे मेकअप से संवर रहा है
फिर भी खुद को बेहतर कह रहा है


कागज के फूल की तरह महक रहा है
दीवार में सजे शोपीस की तरह दिख रहा है
दिखने के लिए लीलाएं रच रहा है
और उसमे खुद ही भटक रहा है


किस खोज में है, निरंतर
जब बहुत कुछ दरक रहा है अंदर
क्या पा रहा है खुद को छल कर


अपने लिए जो दुनिया बना ली
भीतर से कितनी है ख़ाली
फूलों की बहार में ,केक्टस की खरपतवार उगा ली
कौन बनेगा इसका सवाली!

[by anushri]

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Comment by anupama shrivastava[anu shri] on January 7, 2011 at 6:05pm
thax ajay singh ji...........
Comment by Ajay Singh on January 7, 2011 at 5:04pm
vah anupama ji jabab nhi
Comment by anupama shrivastava[anu shri] on January 6, 2011 at 6:38pm
thax chaturvedi ji.............bahut dhanyavad
Comment by anupama shrivastava[anu shri] on January 6, 2011 at 6:37pm
bahut dhanyavad bagi ji...............
Comment by anupama shrivastava[anu shri] on January 6, 2011 at 6:37pm
THAX RAVI KUMAR JI............
Comment by Rash Bihari Ravi on December 29, 2010 at 6:44pm
bahut badhia kavita

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 28, 2010 at 10:54am

अपने लिए जो दुनिया बना ली
भीतर से कितनी है ख़ाली,

क्या बात कही है , वास्तव मे कुछ कुछ ऐसा ही है , किसी ने कहा है की "दौलत मनुष्य को कठोर बना देता है" बहरहाल बेहतरीन रचना हेतु साधुवाद, अन्य रचनाकारों की रचनाओं पर भी आपके विचार की अपेक्षा है |

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