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कुछ उम्मीदें थीं खुद से तुझे

कुछ उम्मीदें थीं खुद से तुझे
जुटाई थी हिम्मत उसके लिए
कुछ ऐसे तेरे लडखडाये कदम
जैसे लगी ठोकर कोई

वादे थे जो घबरा गए
होंगे वो पूरे अब नहीं
यादें थी जो संजोई तूने
काँटों सी वो चुभने लगीं

बढ़ने थे जो जमकर कदम
राहों में वो दुखने लगे
उभरी थी जो कश्ती बड़ी
भवर में कहीं खो गयी

कोन सी है मंजिल तेरी
वो ही है या वो नहीं
कोन सी है मुश्किल तेरी
कुछ है नहीं कुछ है नहीं

शायद वो कुछ बताता तुझे
आगे वो कुछ बढाता तुझे
बढने लगे जो खुद व खुद कदम
सो तूने कुछ पूछा नहीं

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Comment

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Comment by Bhasker Agrawal on December 28, 2010 at 11:20am
आभार गणेश जी :)

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 28, 2010 at 11:07am

वादे थे जो घबरा गए
होंगे वो पूरे अब नहीं
यादें थी जो संजोई तूने
काँटों सी वो चुभने लगीं,

बढ़िया लिख रहे है भाष्कर भाई, यह कविता भी अन्य रचनाओं की तरह ही खुबसूरत बन पड़ी है बहुत खूब ,

कृपया ध्यान दे...

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