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पहचान

 

                     

हटा कर धूल जब देखा अतीत के  आईने ने हमको,

उसने भी न पहचाना और अनजान-सा देखा हमको,

सालों बाद हमसे पूछे बहुत सवाल पर सवाल उसने,

हर सवाल के जवाब में हमने नाम तुम्हारा था दिया।

                      

ऐसा रहा तस्सवुर तुम्हारा इस सूनी ज़िन्दगी पर मेरी,

नींद आए  तो  देखे  यह  हर  धुँधले  ख़वाब  में  तुमको,

न  आए  नींद तो अँधेरे में यह  अंधे  की टूटी लकड़ी-सी,

ढूँढती है यूँ .. यहाँ, वहाँ, हर मोड़, हर चौराहे पर तुमको।

 

पूछे जो आईना तुमसे तो तुम भी कह देना झूठ उससे,

वह भूल थी तुम्हारी कि हाँ तुमने कभी चाहा था हमको,

वरना ज़िन्द्गी की इन वीरान-सुनसान-तंग गलियों में

इश्क के दर्द से तुम्हारी भी तो कभी कोई पहचान न थी।

   

--------                                                                                                                                                                                           

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on August 19, 2013 at 1:34pm

आदरणीय निकोर साहब बहुत सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको!

Comment by बसंत नेमा on August 19, 2013 at 11:19am

सुन्दर अति सुन्दर  भाव ... आ0 निकोर जी 

Comment by Sulabh Agnihotri on August 19, 2013 at 11:16am

बहुत सुन्दर निकोर जी !

Comment by रविकर on August 19, 2013 at 10:50am

बधाई आदरणीय-
सुन्दर प्रस्तुति है-


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 18, 2013 at 9:56pm

आदरणीय विजय भाई , अति सुन्दर !!!! वाह !!!! क्या बात है !!!! बधाइयाँ

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 18, 2013 at 8:08pm

आ0 निकोर सर जी, वाह! //वरना ज़िन्द्गी की इन वीरान-सुनसान-तंग गलियों में
इश्क के दर्द से तुम्हारी भी तो कभी कोई पहचान न थी।// । सुंदर रचना हेतु हृदयतल से बधाई स्वीकारें। सादर,

Comment by annapurna bajpai on August 18, 2013 at 7:33pm

आदरणीय निकोर जी बहुत सुंदर रचना हेतु बधाई स्वीकारें ।

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 18, 2013 at 4:20pm

वाह आदरणीय बहुत सुन्दर अंतिम चार पंक्तियाँ हृदयस्पर्शी बन पड़ी हैं इस सुन्दर रचना हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें

कृपया ध्यान दे...

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