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बार बार भीड़ में

ढूँढता हूँ

अपना चेहरा

 

चेहरा

जिसे पहचानता नहीं

 

दरअसल

मेरे पास आइना नहीं

पास है सिर्फ

स्पर्श हवा का

और कुछ ध्वनियाँ

 

इन्हीं के सहारे

टटोलता

बढ़ता जा रहा हूँ

 

अचानक पाता हूँ 

खड़ा खुद को

भीड़ में

अनजानी, चीखती भीड़ के

बीचों बीच

 

कोलाहल सा भर गया

भीतर तक

कोई ध्वनि सुनाई नहीं देती

शब्द टकराकर बिखरने लगे

 

मैं ढूँढता हूँ 

गुलाब की इन

बिखरी पंखुड़ियों पर जमा

ओस की बूँदों में

अक्स

लेकिन वहां है

सिर्फ अकेली टहनी

 

शायद इस घास पर हो

पद चिन्ह

पर यहाँ मिली

एक लकीर

जिस पर होकर

गुजर रही हैं चींटियां

 

चींटी, घास, पंखुड़ी, ओस

सब बेखबर हैं उस भीड़ से

जो घेरे है मुझे

भीतर बाहर

 

अब मैं पकड़ना चाहता हूँ

हवा को

लेकिन हवा गर्म है

और ध्रुवान्तों की

बर्फ पिघल रही है

नदी में पानी बढ़ रहा

और इस भीड़ में खोया

मैं चिंतित हूँ

अपने उस चेहरे के लिए

जिसे पहचानता नहीं

लेकिन जिसके

पिघलने का खतरा है।

                    -  बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by कवि - राज बुन्दॆली on August 5, 2013 at 9:24pm

वाह क्या बात है शानदार अभिव्यक्ति दी है आपने,,,,,भाई बधाई

Comment by MAHIMA SHREE on August 5, 2013 at 9:19pm

चींटी, घास, पंखुड़ी, ओस

सब बेखबर हैं उस भीड़ से

जो घेरे है मुझे

भीतर बाहर..... बहुत खूब आदरणीय ब्रिजेश जी .. अतर्मन की अकुलाहट और परिवेश की झुझलाहट को सुंदर उकेरा आपने ..बहुत -२ बधाई आपको

Comment by Vinita Shukla on August 5, 2013 at 9:16pm

"मैं चिंतित हूँ

अपने उस चेहरे के लिए

जिसे पहचानता नहीं

लेकिन जिसके

पिघलने का खतरा है।" सुंदर और सशक्त अभिव्यक्ति पर, बधाई स्वीकारें.

Comment by annapurna bajpai on August 5, 2013 at 8:13pm

आ० बृजेश जी  बहुत सुंदर भावनात्मक रचना पर हार्दिक बधाई।

Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 7:15pm

आदरणीया गीतिका जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by वेदिका on August 5, 2013 at 6:35pm

आदरणीय बृजेश जी

सुंदर और भावनात्मक रचना पर, हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 5:39pm

आदरणीय सुलभ जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by Sulabh Agnihotri on August 5, 2013 at 5:07pm

बहुत सुन्दर है ब्रजेश जी ! बहुत पैनी निगाह है आपकी, बधाई !

Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 2:31pm

आदरणीय अमन जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by aman kumar on August 5, 2013 at 2:24pm

आपने सत्य ही लिखा है |

चेहरा

जिसे पहचानता नहीं

 आज मनुष्य अपने को ही कहा जान पाता है ?

जिन्दगी - को प्रक्रति से आपने जो जोड़ा दिया , आप धन्य है !

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