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शब्द ही तो थे …
नयनों के झिलमिल
बिम्बों की भाषा
तरल सीकरों में
ढलती अभिलाषा

टूट तो जाने ही थे
अन्तस् के बंध;
विष  से उफनाये वे-
कटुता के छंद !
शब्द ही तो थे...

फट पडीं, ज्यों बेतरह
कपास की गाठें
चिंदी चिंदी  बिखर गये -
अनछुए अर्थ
विद्रोही पवन का
पाकर स्पर्श 
खुले अवगुंठन

 वह उद्दात्त मन का प्रस्फुटन!

शब्द ही तो थे…
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Meena Pathak on August 5, 2013 at 1:55pm

सुन्दर रचना हेतु बधाई स्वीकारें आदरणीया विनीता जी 

Comment by annapurna bajpai on August 5, 2013 at 1:11pm

adarniya vinita ji sundar rchna ke liye badhai swikaren .

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 5, 2013 at 12:06pm

आदरणीया विनीता जी बेहद सुन्दर रचना है इस हेतु बधाई स्वीकारें.

Comment by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 11:59am

बहुत ही सुन्दर! वास्तव में शब्द ही होते हैं जिनके सहारे अभिव्यक्त होते हैं भाव!
आपको हार्दिक बधाई!

Comment by Vinita Shukla on August 5, 2013 at 11:37am

अनेकानेक धन्यवाद जितेन्द्र जी.

Comment by Vinita Shukla on August 5, 2013 at 11:37am

शुभ्रा जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 5, 2013 at 11:32am

आदरणीया विनीता जी, सुंदर रचना प्रस्तुति पर, बहुत बहुत बधाई

Comment by shubhra sharma on August 4, 2013 at 10:42pm

आदरणीया विनीता जी ,सुन्दर रचना  के लिए  बहुत बहुत बधाई   

Comment by Vinita Shukla on August 4, 2013 at 7:53pm

कोटिशः आभार आ. डी. पी. माथुर जी.

Comment by Vinita Shukla on August 4, 2013 at 7:52pm

हार्दिक आभार महिमा जी.

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