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राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ३९

तुम्हारे साथ की सारी कोमल टहनियां! 

--------------------------------------------

 

कोई परिंदा भी हो

कि खलिहानों में फसलें उगाई जाएँ,

कोई पखेरू भी हो

कि दीवारों पे पानी रखा जाए,

कोई भूला भटका राही भी हो

कि कोई राह निकाली जाए

कुछ शिकस्ता भी हो कि जो जोड़ा जाए,

कोई सरगिराँ भी हो कि जिसे मनाया जाए

कोई याद भी आता हो कि जिसे भूला जाए...

 

वीरान दयारों में वरना.....

क्या शहनाइयां क्या सिसकियाँ?  

सूने गलियारों में क्या बंद, क्या खुली खिड़कियाँ?

ज़िंदगी के तनहा कोहसारों में जैसे

खुशबूओं की तरहा गुम सी गई हैं

तुम्हारे साथ की सारी कोमल टहनियां!  

 

© राज़ नवादवी, भोपाल
रविवार २४/०२/२०१३ मध्याह्न्न १२.३८

 शिकस्ता- टूटा; सरगिराँ- नाराज़; कोहसारों- घाटियों 

"मौलिक व अप्राकाशित"

 

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 11:50am

आदरणीया राजेश जी, मुझे खेद है कि एक लंबा अरसा मैं एक तरह से गैर हाज़िर रहा. मगर आप सबों की यादें ज़हन में बरकरार थीं. आपकी बधाई का बहुत बहुत शुक्रिया! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 17, 2013 at 6:36pm

वीरान दयारों में वरना.....

क्या शहनाइयां क्या सिसकियाँ?  

सूने गलियारों में क्या बंद, क्या खुली खिड़कियाँ?

ज़िंदगी के तनहा कोहसारों में जैसे

खुशबूओं की तरहा गुम सी गई हैं

तुम्हारे साथ की सारी कोमल टहनियां!  

 वाह बहुत शानदार पंक्तियाँ 'राज़'  जी बधाई बहुत दिनों बात आपकी रचनाएँ पढने को मिली 

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