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कभी यूं ही बैठकर सोचते हुए

कल्पना की असीम गहराइयों में

डूबते उतराते

भाव ध्वनियां बनकर

खुद रूप लेने लगते हैं

शब्द का।

 

शब्द बोलते हैं

एक भाषा

और फिर

गडमड हो जाते हैं

एक दूसरे में।

 

रह जाती है

एक ध्वनि

एक स्वर

वह जो

परम भाव है

परम ध्वनि

परम अक्षर!

 

जहां से उपजे

वहीं समा गए

परम शून्य में।

निर्विकार शान्ति!

 

भाव मिले जब शून्य को, मन में ज्ञान समाय।

तन माटी से ऊपजा, तन माटी मिल जाय।।

                - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 16, 2013 at 8:47pm

भाव मिले जब शून्य को, मन में ज्ञान समाय।
तन माटी से ऊपजा, तन माटी मिल जाय।।

बृजेश जी, बहुत ही भावप्रधान रचना हुई है, बधाई प्रेषित है स्वीकार करें ।

Comment by बृजेश नीरज on July 16, 2013 at 5:48pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 16, 2013 at 5:48pm

आदरणीया गीतिका जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 16, 2013 at 5:47pm

आदरणीया प्राची जी रचना को आपके अनुमोदन ने मेरे प्रयास को सार्थकता दी। आपका हार्दिक आभार!

सादर!

Comment by बृजेश नीरज on July 16, 2013 at 5:45pm

आदरणीय नीरज जी आपका आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 16, 2013 at 5:44pm

आदरणीय श्याम नारायण जी आपका आभार!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 16, 2013 at 4:11pm
"भाव मिले जब शून्यको, मनमें ज्ञान समाय।

तनमाटीसेऊपजा, तनमाटीमिल जाय।।" आदरणीय ब्रजेश जी, बहुत सुंदर व गहराई के भावों से ओत-प्रोत रचना अभिव्यक्ति पर हार्दिक बधाई...
Comment by वेदिका on July 16, 2013 at 1:08pm

गहरे भावों को व्यक्त करती हुयी रचना पर अतिशय बधाई आदरणीय बृजेश जी!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 16, 2013 at 1:02pm

स्वयं के करीब बैठ स्वयं को ही सुनने बूझने के प्रयत्न में भावों का आना फिर विलय हो जाना और शेष बचना सिर्फ स्पंदन.... जो दूर शून्य तक जाएँ और उस परम शान्ति का स्पर्श मन प्रक्षालन कर दे.....ऐसे उन्नत भावों को साँझा करती प्रस्तुति के लिए सादर बधाई 

Comment by Neeraj Nishchal on July 16, 2013 at 11:08am
bahut hi sundar bahut hi umda

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