मन्त्रमुग्ध
जाने हमारे कितने अनुभवों को आँचल में लिए
ममतामय पर्वतीय हवाएँ गाँव से ले आती रहीं
रह-रह कर आज सुगन्धित समृति तुम्हारी...
तुम्हारी रंगीन सुबहों की स्वर्णिम रेखाएँ
बिछ गईं थी तड़के आज आँगन में मेरे
कि जैसे झुक गई थीं पलकें उषा की सम्मानार्थ,
विकसित हुए फूल हँसते-हँसते मन-प्राण में मेरे।
खुशी में तुम्हारी मैं फूला नहीं समाता, यह सच है,
सच यह भी, कि मन में मेरे रहती है सोच तुम्हारी गहरी,
हँसते हुए इन फूलों की हँसी से मापता हूँ सम्मोहित
मुझमें तुम्हारा अविरल विश्वास, सुकोमल उल्लास,
हवा के झोंकों से सुनता रहा हूँ सुबह से, संवेदित
भावों की धड़कन कि जैसे उल्लासोन्माद से अरुणित
खींच कर रख देती थी मेरे हाथ को तुम सीने पर अपने।
कुछ लगा कि जैसे यह पर्वतीय हवाएँ अकेली नहीं आईं,
फूलों की हँसी में छिपाए यह तुमको हैं साथ ले आईं,
और तुम... तुम रवि-रश्मि बनी, मेरे रोम-रोम में बसी,
हाथ में हाथ लिए, मेरे भविष्य की लकीरों को संवारती,
मेरे अंतरस्थ गठरी-सी पड़ी सारी मनोग्रंथियों को
खोल देती हो अति सहज,..फिर क्यूँ कण्ठ-रूँधे मित्र-भाव मेरे
ढूँढते हैं मौन में तुम्हारे आज कितने अनकहे शब्दों के अर्थ ?
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-- विजय निकोर
१५ जून, २०१३
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
श्रद्धेय विजय जी, सादर अभिवादन. अत्यधिक व्यस्तता के कारण कुछ दिन ओ.बी.ओ. से दूर रहना पड़ा.....कुछ रचनाएँ पीछे छूट गयीं लेकिन आज अवसर मिला तो ढूँढ़ कर आपकी रचना पढ़ी......नतमस्तक हूँ आपके भाव संप्रेषण की असाधारण क्षमता के आगे. आप ऐसे ही हमें कविता पढ़ने का सुख और जीवन से ओतप्रोत होने की शिक्षा देते रहिये...हम कृतार्थ हो जाएंगे.
और तुम... तुम रवि-रश्मि बनी, मेरे रोम-रोम में बसी,
हाथ में हाथ लिए, मेरे भविष्य की लकीरों को संवारती,
मेरे अंतरस्थ गठरी-सी पड़ी सारी मनोग्रंथियों को
खोल देती हो अति सहज,..फिर क्यूँ कण्ठ-रूँधे मित्र-भाव मेरे
ढूँढते हैं मौन में तुम्हारे आज कितने अनकहे शब्दों के अर्थ//
बहुत खूब अन्त्र्प्रश्न फिर स्वमेव ही उत्तर भी! और फिर निरुत्त्र्ता की स्थिति में मन न मालूम कितनी ही कुलांचे भरता हुआ अन्तर्द्वन्द को पार करने की कोशिश करता है लेकिन अन्तः मौन ही बस …. बहुत ही सुघड़ भाव प्रेषित किये आपकी भावमयी रचना ने!
शुभकामनायें आदरनीय विजय जी!
और तुम... तुम रवि-रश्मि बनी, मेरे रोम-रोम में बसी,
हाथ में हाथ लिए, मेरे भविष्य की लकीरों को संवारती,
मेरे अंतरस्थ गठरी-सी पड़ी सारी मनोग्रंथियों को
खोल देती हो अति सहज,..फिर क्यूँ कण्ठ-रूँधे मित्र-भाव मेरे
ढूँढते हैं मौन में तुम्हारे आज कितने अनकहे शब्दों के अर्थ ...वाह आदरणीय विजय सर ..आपके भाव संप्रेषण तो कमाल के होतें है .. जैसे किसी ने बहुत कुछ लिखा तभी अंदर मन के कोने में पड़ी कई बातों को बस दबाये ही रहा है अंत तक ... बहुत-२ बधाई आपको
ढूंढ़ते है मौन में तुम्हारे आज कितने अनकहे शब्दों के अर्थ
सुन्दर कथ्य!
आदरणीय विजय जी आपकी कविता मे बड़ा ही सुंदर शब्द समायोजन है मै कविता की लय मे खो सी गई ।
आ0 विजय निकोर जी,
///और तुम... तुम रवि-रश्मि बनी, मेरे रोम-रोम में बसी,
हाथ में हाथ लिए, मेरे भविष्य की लकीरों को संवारती,
मेरे अंतरस्थ गठरी-सी पड़ी सारी मनोग्रंथियों को
खोल देती हो अति सहज,..फिर क्यूँ कण्ठ-रूँधे मित्र-भाव मेरे
ढूँढते हैं मौन में तुम्हारे आज कितने अनकहे शब्दों के अर्थ ?///
...अतिसुन्दर...मन छू गई। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
प्रकृति की मानवीकरण ...की अति सुंदर रचना ...(
कुछ लगा कि जैसे यह पर्वतीय हवाएँ अकेली नहीं आईं,
फूलों की हँसी में छिपाए यह तुमको हैं साथ ले आईं)...जैसे मन से उतर्ती नहीं./सादर/कुंती
आदरणीय निकोर जी... बहुत सुन्दर भावों में गुंथी रचना एक दर्द और एक विश्वास .. कि हवाएं भी ले आती है और रश्मि किरणें भी ले आती है तुम्हारे होने का अहसास ... आज अनकहे शब्दों के अर्थ ढूंढ लें और फिर एक नयी रचना रच लें ... सुन्दर रचना के लिए आभार ..
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