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प्रेम के विशाल बटवृक्ष 
जिसमें भावनाओं की गहरी 
जड़ें और यकीन की 
मजबूत साखें
उसमें झूमता है 
इठलाता है 
सब्ज़ दिल 

रिवाजों और रस्मों की 
तेज आँधियाँ भी 
बेअसर होती हैं इस 
विशाल वृक्ष के आगे
जब यकीन के मजबूत तने में 
तना होता है दिल

लेकिन 
शक की दीमकों ने
आहत कर दीं 
वो भावनाओं की जड़ें 
धीरे धीरे 
खोखला कर दिया 
आज इस बटवृक्ष को

और मजबूरियाँ ठगने का 
साधन जिसकी बाढ़ 
वृक्ष के अगल बगल से 
हटाती रिश्तों की माटी को 
और कामयाब हो भी जाती है 
क्यूंकी रिश्ते बोने होते हैं 
गहरी भावनाओं और 
यकीन के आगे
रिश्ते झूठे हैं 
बह जाते हैं बाढ़ में 

और टूट पड़ता है दिल 
इस वृक्ष की खोखली 
हो चुकी यकीन की 
साखों से 
तड़पता हुआ 
वेदना से भरा
किंतु शून्य नहीं 

अपने शनैः शनैः क्षीण होने को 
आँकता है 
स्वयं को टटोलता है 
किंतु 
फिर जुड़ता नहीं 
उस खोखले हुए 
वृक्ष से जो 
अब गिर चुका है 
स्वयं की नज़रों से
भावनाओं को आहत कर और 
यकीन तोड़ के 
प्रेम अब नहीं रहा 
तो फिर दुख भी नहीं 
जब रिश्ता ही नही 
तो दुख कैसा

लेकिन दिल ठगता है 
खुद को 
करता है ढोंग 
उसके तिल तिल पीले पड़ने तक 
फिर सड़ने तक 
छी थू है 
ऐसे प्रेम पर 
जो दीमकों को न्योता देती हैं 
कुछ तो सीखो विज्ञान से कोई 
एंटीदीमक कोई विष 
कुछ तो इस्तेमाल करना था 
काश दिल के पास भी 
दिमाग़ होता 
बेचारा 
प्रेम के भरोशे मारा गया

संदीप पटेल "दीप"

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Comment by Ashok Kumar Raktale on June 6, 2013 at 8:48am

सुन्दर रचना.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 1, 2013 at 10:50pm

एक अच्छी रचना होते-होते रह गयी. इतना ही कहूँगा. वैचारिक संप्रेषणों में थोड़ीभी वाचालता प्रभाव मेट देती है.

प्रारम्भ के दो बंद अत्यंत समृद्ध हैं. ऊहापोह को साझा करते हुए, कि, भावनाओं का सैलाब अनियंत्रित शब्दों में ढलने लगता है. 

आपका प्रयासरत रहना आशस्त करता है, आदरणीय.

शुभ-शुभ

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on May 31, 2013 at 11:02am

आदरणीय केवल प्रसाद जी,  आदरणीय राम भाई,  आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी, आदरणीय विजय सर जी , आदरणीया कुंती जी आदरणीया डॉ प्राची  जी   आप सभी का रचना कर्म को सरहाने हेतु हृदय से आभारी हूँ स्नेह यूँ ही बनाए रखिए सादर 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 30, 2013 at 9:35pm

आ0 संदीप भाई जी, वृक्ष से जो
अब गिर चुका है
स्वयं की नज़रों से
भावनाओं को आहत कर और
यकीन तोड़ के
प्रेम अब नहीं रहा
तो फिर दुख भी नहीं
जब रिश्ता ही नही
तो दुख कैसा.... अतिसुन्दर प्रस्तुति। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,

Comment by vijay nikore on May 30, 2013 at 5:43pm

गहन और उदात्त भाव हैं आपकी इस रचना में। साधुवाद!

सादर,

विजय निकोर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 29, 2013 at 7:45pm

शक की दीमक प्रेम से हरे भरे रिश्तों को कैसे खोखला कर जाती हैं और छोड़ जाती है एक तड़प... 

काश दिल के पास भी 
दिमाग़ होता 
बेचारा ..................सुन्दर शब्द !

अभिव्यक्ति पर हार्दिक शुभकामनाएँ 

Comment by Shyam Narain Verma on May 29, 2013 at 4:49pm
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………
Comment by ram shiromani pathak on May 29, 2013 at 3:39pm

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति हुई है आदरणीय भाई जी ///हार्दिक बधाई 

Comment by coontee mukerji on May 29, 2013 at 2:07pm

संदीप जी , बहुत ही सुंदर और मुखर अभिव्यक्ति  की है .अगर देखा जाए तो हर दिल  का यहीं हाल है .........काश दिल के पास भी
दिमाग़ होता
बेचारा
प्रेम के भरोशे मारा गया..........अति सुंदर  / सादर  /  कुंती .

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