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रूठे घर में मानमनौव्‍वल/के दीपों को पलने दो

रूठे घर में मानमनौव्‍वल

के दीपों को पलने दो

बहुत हो चुकी

टोका-टोकी

लस्‍टम-पस्‍टम

जीवन झांकी

बंद गली को

चौराहों से

गलबहियां दे

चलने दो

कोरी रातों में कलियों को

पल-दो-पल तो खिलने दो

अंधेरे में

डूबे घर भी

हमें देख

सकुचाते हैं

कल तक लगते

थे जो अपने

अब बरबस

डर जाते हैं

जंजीरों में बंधे बहुत अब

पंख जरा तो मलने दो

आओ हम तुम

चैती गाएं

चौसर खेलें

कुछ भसियाएं

बहुत हो चुका

सूखा सावन

फागुन को

कुछ जलने दो

प्रभु-प्रिया हैं पास खड़े अब

मंदिर पट तो खुलने दो

चलो करें

कुछ सैर सपाटा

छोड़ शहर का

ये सन्‍नाटा

चूल्‍हे-चौके

थके-थके से

उन्‍हें बुतों में

ढलने दो

पानी-पूरी सी रातों में

कुछ तारों को गलने दो

(पूर्णत: मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by राजेश 'मृदु' on March 11, 2013 at 6:39pm

सादर आभार आदरणीय


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 9, 2013 at 2:43am

आदरणीय राजेश झाजी, आपका कल्पनालोक अत्यंत विस्तृत है. जिसमें भावनाएँ हैं, उनके लिये शब्द हैं, उन शब्दों के अपने अर्थ हैं. सारा कुछ प्रवहमान है, गेय है. यह अवश्य है कि गेयता एक श्रेणीबद्ध आयोजन है जिसे आपका कवि-हृदय अक्सर सरसरी आखों से देखता हुआ फलांगता आगे निकल जाता है. उत्सवधर्मी रचनाएँ शायद ऐसे ही जीती हैं. ..

आओ हम तुम
चैती गाएं
चौसर खेलें
कुछ भसियाएं
बहुत हो चुका
सूखा सावन
फागुन को
कुछ जलने दो

बुझियउ त, हमर मोनक विस्तारम ई पंक्तिटा मुदा पइठ गेल. प्रवाहक उत्साह एनाही बनल रहबाक चाही.. . आगा फेर आगू..

धन्य-धन्य

Comment by राजेश 'मृदु' on March 8, 2013 at 12:28pm

आप सभी सुधी जनों का हार्दिक आभार, आपके स्‍नेह की धारा में हम हमेशा ही भंसियाते रहें यही कामना है, सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on March 8, 2013 at 12:27pm

भसियाना देशज शब्‍द ही है जिसके दो अर्थ हैं 1. विसर्जन के और 2. धारा के साथ बिना प्रयास के बहते जाना,  यहां धारा के साथ स्‍वच्‍छंद रूप से बहते जाने के लिए इसे रखा है ।

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on March 8, 2013 at 12:18pm

बहुत सुंदर रचना आदरणीय राजेश जी .....................बहुत सुंदर तरीके से देशज शब्दों को गूथा है आपने
बेहतरीन अंदाज भाई वाह
बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by Arun Sri on March 8, 2013 at 11:47am

कमाल की कविता ! प्रगतिशीलता के इस दौर में जरूरत है ऐसे ही प्रयास की जो संभाल सके लड़खड़ाते जीवन को ! बहुत अच्छी रचना ! कमाल की कल्पनाशीलता , शब्द संयोजन !
//भसियाएं// शायद मैथिलि भाषा का शब्द है ! जो "सठिया जाने" के बाद कि स्थिति है संभवतः ! स्मृति लोप का प्रारंभिक चरण ! बूढ़े जब बच्चे जैसे होने लगते हैं !

Comment by Ashok Kumar Raktale on March 8, 2013 at 8:51am

चलो करें

कुछ सैर सपाटा

छोड़ शहर का

ये सन्‍नाटा

चूल्‍हे-चौके

थके-थके से

उन्‍हें बुतों में

ढलने दो

पानी-पूरी सी रातों में

कुछ तारों को गलने दो.......वाह! कमाल की कल्पनाशीलता.

आदरणीय राजेश झा जी सादर, इतनी सुन्दर भावपूर्ण रचना पर तहे दिल से बधाई स्वीकारें.

Comment by वेदिका on March 7, 2013 at 10:46pm

आदरणीय राजेश कुमार झा जी!
सुन्दर कविता ... देशज शब्दों के प्रयोग के साथ। आपने लिखा "कुछ भसियाएं" इसका आशय नही समझ आया। क्या आप बतियाए लिखना चाहते थे?
शुभकामनायें
सादर वेदिका

Comment by बृजेश नीरज on March 7, 2013 at 8:13pm

बहुत ही प्रभावी! देशज शब्दों का बहुत ही सुन्दर प्रयोग!

Comment by vijay nikore on March 7, 2013 at 6:15pm

आदरणीय राजेश जी:

 

कविता के कोमल भाव छू गए।

बधाई।

 

विजय निकोर

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