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मेरा पहला ब्याह (हास्य कविता)

मेरा पहला ब्याह (हास्य कविता)

मजदूर व्यापारी कामगार 

शिक्षित हो या बेरोजगार 
होता क्रेज कब हो सगाई 
ब्याह रचे घर आये लुगाई 
यौवन रथ  खड़ा था द्वार 
मुझे हो गया उनसे  प्यार 
पहले तो घर वाले भन्नाए 
लव मैरिज के गुण दोष बताये 
मिलता न कुछ घर से जाता 
बैरी घर समाज टूटे हर नाता 
पहला ब्याह मेरा है बापू 
चलते बरात या रास्ता नापूं 
लड़की हो लड़का करते मजबूर 
आशिकी करती अपनों से दूर 
लोक लाज न शर्म से नाता 
प्रेम रोग में केवल प्रेमी भाता 
चुप कोने मै बैठी उठ बोली माई
अरेन्ज मैरिज कर या बन घर जमाई 
करना है जो मैया जल्दी करना 
प्यार किया है अब क्या डरना 
जल्दी से  उसे अपनीबहू  बना 
आरोप न लगे कैसा पुत्र जना 
माने लोग तब  निकली लगन 
सजनी मिलन जान जियरा मगन 
आये पाहुन ले सज गद्दा रजाई 
सजनी द्वार पहुंचा बरात सजाई 
बरात की बात थी बेरात हो गई 
तारों की छाँव में विदाई हो गई 
रोते हुए परिजनों से खूब  लिपटी 
अचानक तेजी से बस ओर झपटी 
रुदन बंद देख पूंछा इतनी जल्दी  ब्रेक 
तपाक से वो बोली आदमी हो या क्रेक 
अपनी सीमा तक मैं रोयी अब ये हुई  परायी 
मैं हंसूंगी  तुम्हें है  रोना बनते  पति या घर  जमायी 

 

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Comment

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Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 5, 2012 at 11:10am
वाह वाह आदरणीय काकाश्री
क्या मजेदार कविता लिखी आपने। वो बस तरफ दौड़ने वाली बात तो विशेष मजेदार है। बधाई।
Comment by रविकर on November 5, 2012 at 11:03am

शानदार आदरणीय-
ब्लॉग-जगत में अपनी तुरंती कुंडली के लिए एक पहचान बनी है-
यह देखिये
क्षमा सहित ||

चाहें दोनों तरफ ही, मार रही थी जोर |
बन्दा बड़ा उजड्ड पर, ये बन्दी मुंहचोर |
ये बन्दी मुंहचोर, बनाई है अब बन्दी |
नाच नचाये जोर, देख चुपचाप बुलंदी |
लड्डू लीन्हा खाय, दांत का दर्द कराहे |
वही डाक्टर तोर, मिटाए जो वो चाहे ||

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 5, 2012 at 9:49am
बरात की बात थी बेरात हो गई, तारों की छाँव में विदाई हो गई 
रोते हुए परिजनों से खूब  लिपटी,अचानक तेजी से बस ओर झपटी 
रुदन बंद देख पूंछा इतनी जल्दी  ब्रेक,तपाक से वो बोली आदमी हो या क्रेक 
अपनी सीमा तक मैं रोयी अब ये हुई परायी, मैं हंसूंगी तुम्हें है रोना बनते पति या घर जमायी
हास्य हास्य में, आजकल है जो असलियत बताई, लाजवाब लिखा है श्री पी के कुशवाहा भाई । 

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