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तीन कह-मुकरियाँ

(एक अभिनव प्रयोग)

 

खुसरो की बेटी कहलाये

भारतेंदु संग रास रचाये

कविजन सारे जिसके प्रहरी

क्या वह कविता? नहिं कह-मुकरी!

 

बांच जिसे जियरा हरषाये

सोलह मात्रा छंद सुहाये

पुलकित नयना बरसे बदरी

क्या चौपाई ? नहिं कह-मुकरी!

 

चैन चुराये दिल को भाये 

चिर-आनंदित जो कर जाये

मन की कहती फिर भी मुकरी!

क्या वह सजनी? नहिं कह-मुकरी!

--अम्बरीष श्रीवास्तव

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Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on July 19, 2012 at 7:32pm

आदरणीय भाई जी,

अपने अंदाज़ में कह-मुकरियों की लाजवाब पेशकश की आपने| मुकरी के प्रणेता और उसे पुनः प्रतिष्ठा प्रदान करने वाले दोनों महानुभावों को नमन है| सादर,

Comment by Arun Sri on July 19, 2012 at 1:39pm

सौरभ सर , हालाँकि आपके आलेख में स्पष्ट लिखा है कि //प्रथम  तीन वर्णन-पंक्तियों के माध्यम से साजन या प्रियतम या पति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं//
यहाँ थोड़ी भिन्नता देखी तो पूछ लिया ! :-))


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 19, 2012 at 1:13pm

इस प्रश्न से सम्बन्धित इसी मंच पर कई चर्चा-परिचर्चाएँ हो चुकी हैं. 

’का सखि साजन’ के अलावे शायद ही अन्य प्रश्न सामने आ पाया है.  ’साजन’ को वाराणसी शैली में ’सज्जन’ जरूर किया गया है, ऐसे भी उदाहरण हैं. लेकिन अन्य ’बूझ’ का उदाहरण नहीं आ पाया है. 

अन्य प्रश्न, जैसा कि यहाँ प्रयुक्त हुए हैं, वे प्रासंगिक भर हैं.  अन्यथा भर.

Comment by Arun Sri on July 19, 2012 at 12:56pm

बहुत बढ़िया कह मुकरियाँ ! लेकिन कह मुकरी को "का सखी साजन" के प्रारूप के अलावा भी किसी भी रूप में लिखा जा सकता है  या इसे नई शुरुआत समझा जाए ?

Comment by Er. Ambarish Srivastava on July 19, 2012 at 12:11pm

बहुत खूब आदरणीय सौरभ जी !

हँसती ’दोअर्थी’  कह-कह कर
करे इशारे  तिर्यक अक्सर
बढ़े न खुलके, चलती सँकरी
का वो तिरिया ? ना ’कह-मुकरी’ ...... --सौरभ पाण्डेय


वाह वाह वाह  .क्या बात है ..... हार्दिक बधाई मित्रवर .......:-))))

दो अर्थी है जिसकी वाणी

मुकरे निज से हँस कल्याणी

जीवन रस की छलके गगरी

जीवन साथी? नहिं कह-मुकरी!

Comment by Er. Ambarish Srivastava on July 19, 2012 at 12:06pm

आदरेया सीमा जी, आप जैसी विदुषी की सराहना पाकर यह सृजन धन्य हो उठा है ! अतएव आपके प्रति  हार्दिक आभार ज्ञापित कर रहा हूँ ! सादर

Comment by Er. Ambarish Srivastava on July 19, 2012 at 12:04pm

धन्यवाद भ्राता  अरुण जी !

Comment by Er. Ambarish Srivastava on July 19, 2012 at 12:03pm

//अधरों पर मुस्कान जगाए 

गुप-चुप दिल के भेद बताए

है वो एक रहस्मय खबरी!

क्या सखी सजना? न न कह-मुकरी!//

सराहना हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरेया डॉ० प्राची जी, प्रतिक्रिया में अति सुंदर कह मुकरी रची है आपने......साधुवाद ....

इससे प्रेरित होकर एक और कह-मुकरी उपजी है ....  

हम पर उसका पूरा हक रे

नैनों से कह उससे मुकरे

चलती तिरछी राहें सँकरी  

क्या वह सजनी? नहिं कह मुकरी!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 19, 2012 at 11:18am

सम्यक कहा आदरणीय अम्बरीषभाईजी.  बहुत खूब !

आपही के स्वर में हम सुर लगायें - 

हँसती ’दोअर्थी’  कह-कह कर
करे इशारे  तिर्यक अक्सर
बढ़े न खुलके, चलती सँकरी
का वो तिरिया ? ना ’कह-मुकरी’ .. ....  हा हा हा हा .........



कह-मुकरी पर एक आलेख भी चस्पां है इन्हीं पन्नो पर.
http://www.openbooksonline.com/forum/topics/5170231:Topic:153703

सादर

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 19, 2012 at 11:00am

वाह भ्राताश्री बेहद खुबसूरत कह-मुकरियां, बहुत - बहुत बधाई.

कृपया ध्यान दे...

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