जिस प्रकार के भवन की कल्पना बादशाह ने की थी यह भवन उससे भी कहीं अधिक सुन्दर बना था, जिसकी भव्यता देखकर बादशाह की आँखें चौंधिया सी गईं थीं. चहुँ ओर भवन निर्माण करने वाले शिल्पकार की मुक्तकंठ से प्रशंसा हो रही थी. जिसे सुनकर शिल्पकार भी फूला नहीं समा रहा था. लेकिन तभी अचानक बादशाह ने शिल्पकार के दोनों हाथ काट देने का आदेश दे दिया ताकि शिल्पकार पुन: ऐसी शानदार इमारत का निर्माण न कर सके. सुबह होते ही शिल्पकार के दोनों हाथ काट दिए गए. लेकिन अपने कटे हाथ देख शिल्पकार जोर जोर से ठहाके मार कर हँसने लगा, उसके ठहाके रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. यह हरकत देख कर वहां उपस्थित भीड़ मानो सकते में आ गई. एक व्यक्ति ने आगे बढ़कर पूछा:
"दोनों हाथ गंवाकर भी हँस रहे हो, पागल हो गए हो क्या ?"
"पागल मैं नहीं तुम्हारा बादशाह हो गया है ?
"वो कैसे ?"
"वो मूर्ख शायद ये भूल गया कि शिल्प मेरे हाथों में नहीं, मेरी आत्मा में बसता है."
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Comment
आदरणीय सौरभ भाई जी आप जैसे विद्वान् की शाबाशी मेरे लिए किसी इनाम से कम नहीं, आपका दिल से आभार.
सादर धन्यवाद आदरणीय अविनाश बागडे जी.
योगी सारस्वत जी दिल से आभार.
सादर धन्यवाद रेखा जोशी साहिबा.
लघुकथा पसंद करने के लिए दिल से धयवाद आदरणीय भ्रमर जी.
सादर धन्यवाद उमाशकर मिश्र भाई जी.
धन्यवाद राज भाई.
सादर धन्यवाद आदरणीय दवे साहिब.
"पागल मैं नहीं तुम्हारा बादशाह हो गया है ?
आदरणीय श्रीयोगराजजी, सत्य वचन कहा आपने, केन्द्रस्थ राजवी भी आजकल पगला गए लगते हैं..!
बहुत सुंदर कथा,बधाई स्वीकार करें ।
वाह सर जी.. क्या बात कही. :)
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