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लघु कथा : हाथी के दांत 

बड़े बाबू आज अपेक्षाकृत कुछ जल्द ही कार्यालय आ गए और सभी सहकर्मियों को रामदीन दफ्तरी के असामयिक निधन की खबर सुना रहे थे. थोड़ी ही देर में सभी सहकर्मियों के साथ साहब के कक्ष में जाकर बड़े बाबू इस दुखद खबर की जानकारी देते है और शोक सभा आयोजित कर कार्यालय आज के लिए बंद करने की घोषणा हो जाती है | सभी कार्यालय कर्मी इस आसमयिक दुःख से व्यथित होकर अपने अपने घर चल पड़ते  है | बड़े बाबू दफ्तर से निकलते ही मोबाइल लगा कर पत्नी से कहते है "सुनो जी तैयार रहना मैं आ रहा हूँ, आज  सिनेमा देखने चलना है"

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 22, 2012 at 5:31pm

 

     ये क्या हो रहा है ?

 

Comment by वीनस केसरी on March 22, 2012 at 5:29pm

आनंद भाई

अपना ही एक शेर याद आ रहा है

समय के सुर में बोलेगा वो इक दिन
अभी तो उसका लहजा बोलता है

आप रचनाओं का शतक बना चुके हैं
शाही जी ने कई शतक लगा लिए होंगे

मैंने अभी अर्धशतक भी नहीं बनाया

आप लोग श्रेष्ठ हैं मैं आपको दोनों को नमन करता हूँ

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 22, 2012 at 5:27pm

//बेशक इसके पीछे थोड़ा मेरा पूर्वाग्रह भी अवश्य है, क्योंकि मैं कल से ही थोड़ा कन्फ़्यूज्ड भी हूँ । कल भी जब साइट खोला था तो संदीप द्विवेदी ‘वाहिद’ जी को ठीक वैसी ही स्थिति में पाया था, जैसी स्थिति में आज आनन्द को देखा । वाहिद अपनी सारी तथाकथित विवादास्पद टिप्पणियाँ डिलीट कर चुके थे, जिनमें से एक मेरी भी थी । आदरणीय सौरभ जी उन्हें समझाए जा रहे थे, और वाहिद लगातार माफ़ी दर माफ़ी मांगे जा रहे थे, जैसे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो । सूची में एक अपनी भी टिप्पणी होने के कारण मैंने मन ही मन उसकी समीक्षा की तो याद आया कि मेरी टिप्पणी ठेंठ भोजपुरी की एक कहावत ‘गइल भँइस पानी में’ पर आधारित थी । यह उक्ति पूरे भोजपुरी भाषी क्षेत्र में आमतौर पर प्रचलित कहावत के रूप में इस्तेमाल की जाती है, जिसका अर्थ ‘काम बिगड़ गया’ निकलता है । तो क्या वह भोजपुरी जिसे आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग निरन्तर ज़ोर पकड़ रही है, तथा भारत के एक बहुत बड़े भूभाग सहित मारीशस, फ़िजी, और सूरीनाम आदि देशों की अधिसंख्य आबादी द्वारा बोली जाने वाली अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है, उसे आपत्तिजनक अथवा जाहिलों गँवारों की भाषा मान लिया जाय ? आखिर क्या समझकर मेरी टिप्पणी को हटवाया गया ? इन सवालों से क्षुब्ध होकर मैंने कल भी अपनी भावनाएँ वाहिद जी की पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में दर्ज़ किया था, जिसके जवाब की प्रतीक्षा उक्त स्थान पर अभी तक कर ही रहा हूँ । किसी प्रतिष्ठित साइट पर ज्वाइन करते ही यदि सम्मानित संचालकगण की तरफ़ से ऐसे अनुभव प्राप्त होने लगें, तो नवागन्तुक कैसी मानसिकताओं से गुजरेगा, इसका अंदाज़ सहज ही लगाया जा सकता है । //

 

आदरणीय रवीन्द्र जी,  आपकी सद्यः पोस्टेड प्रतिक्रिया से उद्धृत उपरोक्त भाग के दो चरण हैं, एक मुझसे ताल्लुक रखता है, दूसरे में भोजपुरी भाषा की गरिमा, प्रतिष्ठा और सार्वभौमिकता की चर्चा हुई है.

मुझसे संबन्धित जो चरण है उसके लिहाज से मुझसे आपसे मात्र दो साग्रह प्रश्न करने हैं.

१.  आपने आदरणीय संदीपजी के उक्त थ्रेड पर की भले ही सारी नहीं, परन्तु, क्या मेरी सारी प्रतिक्रियाएँ / टिप्पणियाँ पढ़ी हैं ?

२.  क्या आपने आदरणीय संदीप जी से उक्त मामले की चर्चा की है ? यदि हाँ, तो क्या उन्होंने आपसे यही कहा कि सौरभ ने उनसे टिप्पणियाँ हटाने के लिये कहा है ?  या, उनका उक्त प्रकरण मुझ ख़ाकसार के साथ घटित हुआ है ?

 

मैंने आदरणीय संदीपजी के उक्त थ्रेड पर आपकी अबतक की आखिरी टिप्पणी/ प्रतिक्रिया देखी है. किन्तु, उसका जवाब देना आवश्यक नहीं समझा. क्योंकि मुझे प्रतीत हुआ कि उस अतुकांत मामले का पटाक्षेप हो चुका है/था. तो फिर से किसी द्वारा किसी रूप में पर्दा उठाना अनावश्यक ही होता.   आदरणीय, सादर अनुरोध है कि  हम एकांगी न बनें.

आदरणीय रवींद्रजी,  आप इस मंच पर नवागंतुक हैं. आपका सादर स्वागत है. आप थोड़ा देख-परख लें. धैर्य और विश्वास बहुत बड़ा संबल होने के साथ-साथ आवश्यक आईना भी हुआ करते हैं, जो समय के अनुसार सबकुछ स्पष्ट दिखाते हैं.

आप यह आँख मूँद कर मान लें कि इस मंच पर किसी सदस्य की गरिमा और उसके व्यक्तित्व के लिये कोई अन्य सदस्य अनावश्यक इनिशियेटिव नहीं लेता, जैसा कि अन्य मंचों पर हुआ करता है. चाहे वह सदस्य कितना ही नया क्यों न हो. यहाँ कोई गुट कार्य नहीं करता, आदरणीय,  बल्कि प्रबन्धन  की निगरानी ही कार्य करती है. और इसके सदस्य इतने संवेदनशील अवश्य हैं कि सही और उचित की परख कर सकें.  सर्वोपरि, यदि कोई सदस्य रचनाधर्मिता के अंतर्गत कुछ सीखना चाहता है तो उसे पूरी उदारता के साथ सभी सक्रिय सदस्य स्वीकार करते हैं. बशर्ते उक्त सदस्य का आशय वस्तुतः ’सीखना’ ही हो.  और आप वयस-वरिष्ठ हैं, कहना नहोगा,  रचनाकर्म अथवा रचनारंजन स्वाध्याय की अपेक्षा भी करते है

 

भोजपुरी वाले चरण के लिये तो मैं इतना ही कहूँगा कि हम कई-कई जने उसी भूभाग से ताल्लुक रखते थे/हैं, जहाँ यह सर्वग्राही, अद्भुत और सरस किन्तु ठेठ भाषा बोली जाती है. इस भाषा की तासीर, इसका लहजा, इसका अंदाज़ सबकुछ वो सदस्य जीते हैं. और, आदरणीय,  उन सदस्यों में से मैं भी एक हूँ.  इसका आपको भी भान है. आपकी प्रतिक्रिया/टिप्पणी में यह चरण अनावश्यक प्रतीत हुआ.

हमसभी सदस्य रचनाकर्म तथा सीखने-सिखाने को ध्येय बना कर अग्रसरित हों. रचनाओं की टिप्पणीयों के लिये तयशुदा बॉक्सों में अनावश्यक टिप्पणियाँ/ प्रतिक्रियाएँ रचना के साथ अहित तो करती ही हैं, वातावरण का भी सत्यानाश करती हैं. 

 

सादर

Comment by वीनस केसरी on March 22, 2012 at 5:23pm

उफ्फ्फ्फ्फ

इतनी बातें ....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 22, 2012 at 4:59pm

चलिए अब सब हँस दीजिये किसी बात को अधिक नहीं खीचते लधु कथा पर टिपण्णी कुछ दीर्घ हो गई हैंवातावरण को सुखद बनाये |

Comment by वीनस केसरी on March 22, 2012 at 3:16pm

Ravindra Nath Shahi जी,

आपके कमेन्ट की अन्य बातों से मैं खुद को नहीं जोड़ रहा मगर
ओ बी ओ मंच पर रचनाओं के स्तर को परख कर सदस्यों को रचनाकार की वरिष्ठता अथवा कनिष्ठता का बोध स्वतः हो जाता है
यहाँ कोंई घोषित वरिष्ठ सदस्य नहीं है

प्रबंधन समिति और कार्यकारिणी समिति के विषय में भी आप सम्बंधित पोस्ट को पढेंगे तो मेरी बात और स्पष्ट हो सकेगी

इस मंच पर अधिक समय से उपस्थिति, अधिक समय से लेखन अथवा अधिक उम्र को वरिष्ठता का पैमाना नहीं माना जाता
मुझे विश्वास है कि आप इस मंच को कुछ समय देंगे तो आप पर यह बातें स्वतः स्पष्ट हो जायेंगी


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on March 22, 2012 at 2:30pm

परम आदरणीय रविन्द्र नाथ शाही जी, मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि ओबीओ परिवार में किसी भी नवोदित रचनाकार को घेरने, हतोत्साहित करने या लांछन लगाने का कतई रिवाज़ नहीं है. यह सीखने सिखाने का एक मंच है जहाँ हम सब एक दूसरे के अनुभवों से सीखते हैं. यदि आप हाल ही में संपन्न "चित्र से काव्य" प्रतियोगिता अंक -१२ पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होगा कि इसी नवोदित सदस्य के सभी दोहों को इस खादिम ने दुरुस्त  कर पुन: लिखा. बाकी सभी गुरुजनों ने भी इनकी रचना में सुधार हेतु महत्वपूर्ण सलाहें/जानकारियां दी ताकि इनकी लेखनी में और चमक आए. मुझे आपकी इस बात से कतई बे-इत्तेफाकी नहीं कि गुरुजनों को नवोदित रचनाकारों के प्रति प्राय: नर्म रवय्या ही अख्त्यार करना चाहिए, लेकिन इसी के साथ मैं ये भी अर्ज़ करना चाहूँगा कि नवोदितों को भी कोई आलोचनात्मक टिप्पणी देने से पहले उसे तथ्य एवं तर्क कि कसौटी पर परख लेना चाहिए. क्योंकि इनके बगैर ऐसी टिप्पणियाँ मात्र कोरी लफ्फाजी बन कर रह जाया करती हैं. सादर.     


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 22, 2012 at 2:10pm

आदरणीय शाही जी, व्यंगात्मक एवं तीखी टिप्पणी से पहले काश आप अन्य टिप्पणियों को अच्छी तरह पढ़ लिए होते  :-((((

//परन्तु अत्यन्त विनम्रतापूर्वक एवं किंचित संकोच सहित यह भी कहना चाहूँगा, कि जिस प्रकार छोटों के मुँह से बड़ी बातें शोभनीय नहीं होतीं, उसी प्रकार बड़े भी यदि अपनी गुरुता से नीचे उतरकर छोटों से मुँह लगने वाली बात करने लगें, तो दाँतों तले उंगली दबाकर ही यह सब देखना पड़ता है । //

यह आप क्या कह रहे है आदरणीय , यह मुह लगने लगाने की बात कहा से आ गई, यह टिप्पणी भी कही पूर्व की भाति डिलीट करने हेतु तो नहीं ?

//आनन्द प्रवीण जी को मैं जितना जान पाया हूँ, वह एक उत्साही और जिजीविषा की हद तक कुछ नया सीखने एवं सृजन की ललक रखने वाले आग्रही प्रवृत्ति वाले युवा हैं । कम उम्र के उत्साही युवाओं को यदि उनकी रुचि के विषय की जानकारी रखने वाले गुरुजन मिल जाएँ, तो स्वाभाविक आकर्षण के वशीभूत वे उन्हें गुरु मानकर सीखने के लिये उनके पीछे पड़कर भी आग्रहपूर्वक बहुत कुछ हासिल कर लेते हैं ।जहाँतक मुझे जानकारी है, इस मंच पर नए-नए जुड़े कई रचनाकारों से आनन्द जी ने इसी प्रकार सीखने का प्रयास किया है । //

आदरणीय कृपया एक बार पुनः भाई प्रवीन जी की उक्त टिप्पणी का अवलोकन कर ले .....

//

आदरणीय गणेश सर, सादर प्रणाम

सबसे पहले तो आपको इस कथा के लिए बधाई.....................किन्तु आपने इसका नामकरण सही नहीं किया है..........इसे किसी भी प्रकार से लघु नहीं कहा जा सकता ..........हाँ ये अतिलघु की श्रेणी में अवश्य आता है...........अच्छे भाव पर कसावट आपके शैली की नहीं मानूंगा...............इसके लिए क्षमा करें//

इस टिप्पणी द्वारा प्रवीन जी क्या कुछ सीखना चाहा है ? या एक लघु कथा के ज्ञाता की भाति समीक्षा किया है ?

//नीचे के वार्तालाप में गुरुजनों द्वारा एक प्रशिक्षु को घेरकर उचित प्रशिक्षण देने का प्रशंसनीय प्रयास हुआ है ।//

मेरी रचना की  टिप्पणी स्थान क्या कोई प्रशिक्षण शाला है ? एक दूसरे से सीखने सिखाने और प्रशिक्षण देने मे आप भी अंतर अवश्य समझते होंगे |

// बिना एकदूसरे के स्वभाव को अच्छी तरह जाने पहचाने उसकी किसी टिप्पणी को प्रायोजित और हाथी के बाहरी दाँत की मानिन्द बताना तो कुछ ऐसा ही आभास देगा//

आपको मेरी टिप्पणी पुनः एक बार पढ़ लेना चाहिए ..........

//भाई प्रवीन जी, मैं किसी की टिप्पणी को अन्यथा नहीं लेता , वस्तुतः वह लोजिकल हो, अन्यथा आपकी टिप्पणी भी प्रायोजित और इस लघु कथा के शीर्षक के मानिद प्रतीत होती है |//

क्या अब भी आप कहेंगे कि मैंने प्रवीन जी की टिप्पणी को प्रायोजित और हाथी के बाहरी दांत के मानिंद कहा है ?

//क्योंकि छोटा हो या बड़ा, विभेद तो हो ही गया नऽ ? एक दोष जो आदरणीय सौरभ जी ने निकाला, उसे तो बड़ी शालीनता से श्रद्धेय ‘बाग़ी’ जी ने न सिर्फ़ स्वीकार कर लिया, बल्कि बिना किसी तर्क़ के भविष्य में सुधार तक का आश्वासन दे डाला । एक छोटी सी बात बच्चे ने कर दी, तो उसपर इतना बड़ा लांछन ! यानी अब कोई भी समाज ‘समरथ के नहिं दोष गोसाईं’ वाले भाव से अछूता नहीं रहा । //

श्रीमान लांछन तो सीधे सीधे आपने लगा दिया है , और मैं उस लांछन का कड़े रूप से विरोध करता हूँ, टिप्पणी का मकसद शांत जल में बोल्डर फेकने का नहीं होना चाहिए | 

Comment by आशीष यादव on March 22, 2012 at 11:35am

sahi hai, khane ke aur, dikhane ke aur.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on March 22, 2012 at 9:59am

भाई आनंद प्रवीण जी, ये शीर्षक तो इस कहानी की जान ओर शान है, ओर आप कह रहे हैं कि इसका नामकरण सही नहीं किया है. मेरी तुच्छ जानकारी के अनुसार यह रचना कलेवर, आकार, शैली ओर कथानक की दृष्टि से लघुकथा शिल्प की हरेक कसौटी पर खरी उतरती है. आपको किस जगह कसावट में कमी महसूस हुई, अगर  ये भी बता दें तो बहुत अच्छा होगा.

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