For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

गीत विरह के 

जिसनें जीवन के सुन्दर पल

साथ हमारे काटे थे
क्या खबर थी उनके जीवन में
बस  काँटे  ही काँटे  थे
 
हम बेबस थे,थे लाचार
कैसे जताते अपना प्यार
हमनें तो कुछ गीत विरह के 
अपने लिए ही छांटे थे
 
हम भी तन्हा तुम भी तन्हा
तन्हाई ही सहारा है
हमने तो खुशियों के खज़ानें 
इस दुनियाँ को बांटे थे
 
ऐसा नहीं तुम्हें भूल गए
या तुमको ढूँढा ही नहीं
मेरे दिल से पूछो जिसे तुम 
अक्सर ही याद आते थे 
अक्सर ही याद आ-----

दीपक शर्मा 'कुल्लुवी'
१७/०१/१२.
9350078399

मेरी यह कविता मेरे बचपन के एक ऐसे  दोस्त मित्र के लिए है  जिसे हमनें कभी उदास नहीं देखा लेकिन खुदा ने उसके जीवन में आँसू ही आँसू भर दिए I हम चाहकर भी उसके लिए अब कुछ नहीं कर सकते I यह हमारी बदनसीबी है I

Views: 617

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Deepak Sharma Kuluvi on February 4, 2012 at 9:59am
आशुतोष जी..........
ज़िन्दगी अपनी यादों की एक खुली किताब सी है 
समेटे हुए हैं इसमें अपने आस पास का दर्द
इनको खोलनें से पहले बस इतना ख्याल रखना
आपके अश्क ढल न जाएँ दर्द मेरा देखकर ......
दीपक 'कुल्लुवी' 
shukriya
Comment by Deepak Sharma Kuluvi on January 23, 2012 at 5:34pm

ashish ji 

kavita aapke dil ko chho gayi to hamare dil ka dekhiye kya haal hua hoga...?

dhanyabad

Comment by आशीष यादव on January 22, 2012 at 6:50pm

आदरणीय  श्री DEEPAK SHARMA KULUVI जी , बहुत ही भावुक कविता है| बिलकुल सरल सहज  शब्दों में लेकिन दिल  को छूती हुई|

Comment by Deepak Sharma Kuluvi on January 17, 2012 at 4:41pm
सौरभ जी आपका आशीर्वाद हमेशा साथ है....
बिल्कुल सत्य कहा आपने .....

था इंतज़ार मौत का जब जिंदगी बेहाल थी
अब ज़िन्दगी कुछ संभली थी तो मौत आ गयी

दीपक कुल्लुवी

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 17, 2012 at 4:34pm

दीपकजी,  संवेदना की उफनायी बाढ़ में बहुत देर तक बहता रहा.  बेरोक-टोक.  कुछ संयत हुआ तो इतना ही कह पा रहा हूँ  --ज़िन्दग़ी में बहुत कुछ ऐसा हुआ करता है, जिसे चाह कर भी शब्दों में नहीं ढाला जा सकता.  मगर इन्सान फिर भी कोशिश करता है.

शुभकामनाएँ.

 

Comment by Deepak Sharma Kuluvi on January 17, 2012 at 3:56pm
नीरज जी...धन्यवाद..

न हसेंगे खुशियों में न रोएँगे हम गम में
हमनें तो हर हाल में जीने की कसम खा ली ...

दीपक कुल्लुवी

Comment by Deepak Sharma Kuluvi on January 17, 2012 at 3:36pm
प्रभाकर जी शुक्रिया......
न जानें कौन से गम का रिश्ता निभाते हैं यह चिराग
रहता हूँ जब तक होश में जलते हैं मेरे साथ........

कुल्लुवी

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 17, 2012 at 3:30pm

विरह को सुन्दरता से शब्दों में ढाला है आदरणीय दीपक जी - बहुत खूब.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर आपने सर्वोत्तम रचना लिख कर मेरी आकांक्षा…"
14 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे... आँख मिचौली भवन भरे, पढ़ते   खाते    साथ । चुराते…"
15 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"माता - पिता की छाँव में चिन्ता से दूर थेशैतानियों को गाँव में हम ही तो शूर थे।।*लेकिन सजग थे पीर न…"
18 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे सखा, रह रह आए याद। करते थे सब काम हम, ओबीओ के बाद।। रे भैया ओबीओ के बाद। वो भी…"
21 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"स्वागतम"
yesterday
धर्मेन्द्र कुमार सिंह posted a blog post

देवता चिल्लाने लगे हैं (कविता)

पहले देवता फुसफुसाते थेउनके अस्पष्ट स्वर कानों में नहीं, आत्मा में गूँजते थेवहाँ से रिसकर कभी…See More
yesterday
धर्मेन्द्र कुमार सिंह commented on धर्मेन्द्र कुमार सिंह's blog post देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)
"बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय,  मिथिलेश वामनकर जी एवं आदरणीय  लक्ष्मण धामी…"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-185

परम आत्मीय स्वजन, ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 185 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
Wednesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रस्तुति पर आपसे मिली शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद ..  सादर"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

आदमी क्या आदमी को जानता है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२ कर तरक्की जो सभा में बोलता है बाँध पाँवो को वही छिप रोकता है।। * देवता जिस को…See More
Tuesday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service