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आग लगी आकाश में,  उबल रहा संसार।

त्राहि-त्राहि चहुँ ओर है, बरस रहे अंगार।।

बरस रहे अंगार, धरा ये तपती जाए।

जीव जगत पर मार, पड़ी जो सही न जाए।

पेड़ लगा 'कल्याण', तुझी से यह आस जगी।

हरी - हरी हो भूमि, बुझे जो यह आग लगी !

सुरेश कुमार 'कल्याण' 

मौलिक एवम् अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on June 2, 2024 at 1:14pm

आदरणीय सुरेश कुमार जी, बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। हार्दिक बधाई। क्या कुंडलियां छंद में दो दोहे हो सकते हैं? एक दोहा और एक रोला छंद के योग से कुंडलियां बनता है। आदि और अंत समान शब्द या शब्द सम्मुचय होता है। सादर।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2024 at 6:59pm

आ. भाई सुरेश जी, अभिवादन। प्रेरणादायी छंद हुआ है। हार्दिक बधाई।

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