भूख लगती है कभी जो, याद इसकी आती है
ना मिले तो पेट में फिर, आग सी लग जाती है
राजा हो या रंक देखो, इसके सब ग़ुलाम है
तीनो वक़्त खाने से पहले, करते इसे सलाम है
रुखी-सुखी जैसी भी हो, पेट यह भर जाती है
चाह में अपनी हर किसी, को राह से भटकाती है
जिसने इसको पा लिया, वो राज सब पर कर गया
ना मिली जिसे उसे, मुज़रीम भी देखो कर गया
कितना भी हो प्रेम सब में, इसके आगे फीका है
ये चलाता है सभी को, सब पर वश इसिका है
पात पर पड़ा नहीं तो, जंग भी करवाता है
चाहे कितना बड़ा हवन हो, भंग भी करवाता है
दे सके ना जो पिता तो, वो पिता रहता नहीं
स्वामी रहता है नहीं, और नाथ रहता ही नहीं
इसके लिये हाथ जोड़े, सब खड़े हो जाते है
लम्बी कितनी भी रहे, क़तार में लग जाते है
क्या भला और क्या बुरा, इसके आगे कुछ नही
लूट लेना या लुट जाना, इसकी खातिर सब सही
कौन आगे क्या बनेगा, यह भी तय करता यही
नाम या बदनामी देगा, इसकी कही हीं है सही
"मैलिक व अप्रकाशित"
अमन सिन्हा
Comment
आदरणीय अमन जी,
1. रुखी-सुखी = रूखी-सूखी, मुज़रीम = मुज़रिम, इसिका = इसी का, जाते है = जाते हैं, नही = नहीं आदि।
2. //इसकी कही हीं है सही// क्या कहना चाह रहे हैं कुछ समझ नहीं आया।
आदरणीय समर कबीर सर से मैं भी सहमत हूँ। यदि आप साहित्य के प्रति सच में गम्भीर हैं तो आपको सीखने पर अधिक ध्यान देना चाहिए। बहरहाल, इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।
जनाब अमन सिन्हा जी आदाब, आपकी रचनाओं के भाव अच्छे होते हैं लेकिन जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है,ये किसी विधा में बाँध कर ही अच्छे लगेंगे, ऐसे इनकी कोई क़ीमत नहीं, आप अगर कुछ सीखने के लिए तैयार हों तो मुझसे इस नम्बर पर सम्पर्क कर सकते हैं:-
09753845522
इस प्रस्तुति पर बधाई आपको ।
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