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प्रतिद्वंदी (लघुकथा)

दो भिखारी बीच सड़क पर झगड़ रहे थे। ट्रैफिक दोनों तरफ रुका हुआ था।लोग मौन तमाशबीन बने थे।
"तुम मेरे मुहल्ले में क्यों घुसे?" पहला भिखारी चिल्लाया।
"कौन तेरा मुहल्ला?दूसरे ने सवाल दागा।
"वही बाबा लोगों वाला।वहां केवल मैं भीख मांग सकता हूं,तुम नहीं।"
"क्यों बे? मैं क्यों नहीं?"
"इसलिए कि सामने के मुहल्ले से केवल तुझे भीख मिलती है,मुझे कभी नहीं।तेरी दुआ ही वहां फलती है,मेरा आशीष नहीं।"
"मैं तो बाबा वाले मुहल्ले में भी दुआ बांट आता हूं।कुछ मांगता भी नहीं।"
"अरे, तुमने ही तो यह मुफ्त वाली बीमारी फैला दी है।अब लोग आशीष भी बिना कुछ दिए ही मांगने लगे हैं।"
"ठीक तो है।बांटो।"
"हां,और पेट भरने के लिए डाका डालें?"
"धर्म की चादर ओढ़ दूसरा कर क्या रहे हो?"
"फिर ईमान का चोला धारण कर तुम कौन तीर मारते हो जी?"
धर्म -ईमान तक आते आते बात ज्यादा बिगड़ गई।दोनों भिखारी एक -दूसरे के कपड़े फाड़ने लगे।कपड़े फटते,चिथड़े उड़ते।हवा से बातें करते।राम,रहीम,बाबा, साईं सब ऊपर मेल -मिलाप कर रहे थे।इधर दोनों योद्धा आपस में गुत्थम गुत्था हुए जाते।प्रतिद्वंदी के शरीर के बचे कपड़े फाड़ते और चिल्लाते,
"तुम नंगे।"
"नहीं, तुम नंगे।"
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by Manan Kumar singh on September 5, 2022 at 10:57am

आपका आभार आ.लक्ष्मण जी।नमन।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 3, 2022 at 6:14am

आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। सुंदर समसामयिक लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।

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