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122×8

मेरे साथ कोई ज़रा मुस्कुरा ले,
कलेजा बहुत भारी होने लगा है।
ये जीवन का रस्ता वहाँ आ गया है,
जहाँ हर किसी को मुझी से गिला है।

वो बचपन के साथी जो खाते थे कसमें,
रहेंगे सदा साथ जीवन डगर में।
कोई अपनी मंजिल पर तन्हा खड़ा है,
कोई जिंदगी के भंवर में फंसा है।

जो पाए हैं तुझको खुदी को मिटा कर,
वो पैगाम ए उल्फत ही देकर गए पर,
तेरा सबसे मिलना वो चेहरे बदल कर,
जमाने में झगड़े का जरिया बना है।

मुलाकात का कोई वादा नहीं है,
मगर मेरी उम्मीद मिट जाए कैसे,
हमें भी यकीनन मिलेंगे कभी वो,
तलबगारों को तो खुदा भी मिला है।

फसाना कहाँ तक सुनाएं जफा का,
यही सोचते हैं तुझे भूल जाएं।
मगर कतरे कतरे में दिल के लहू के,
तुम्हारे सितम का असर घुल चुका है।

करीब आके इक दिन मुझे छू के देखो,
हकीकत का तुमको नज़ारा मिलेगा।
जिसे सब समझते हैं मजबूत इंसां,
वो "अहसास" जख्मों में लिपटा हुआ है।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मनोज अहसास on March 5, 2020 at 5:12pm

आदरणीय मुसाफ़िर जी हार्दिक आभार

Comment by मनोज अहसास on March 5, 2020 at 5:11pm

आदरणीय कबीर साहब महत्वपूर्ण इस्लाह के लिए हार्दिक आभार

सुधार के लिए सदैव प्रयासरत रहने का प्रयास करूंगा

आभार

सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 4, 2020 at 7:43am

आ. भाई मनोज जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई । आ. भाई समर जी की बातों का संज्ञान लें ...

Comment by Samar kabeer on March 3, 2020 at 3:13pm

जनाब मनोज अहसास जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'कोई अपनी मंजिल पर तन्हा खड़ा है,
कोई जिंदगी के भंवर में फंसा है'

इस मिसरे में 'पर' को "पे" कर लें,मिसरा बह्र से ख़ारिज हो रहा है ।

तेरा सबसे मिलना वो चेहरे बदल कर,
जमाने में झगड़े का जरिया बना है'

ये मिसरा बह्र से ख़ारिज है,क्योंकि 'जरिया' ग़लत शब्द है,सहीह शब्द है "ज़रीआ"122

'मुलाकात का कोई वादा नहीं है,
मगर मेरी उम्मीद मिट जाए कैसे,
हमें भी यकीनन मिलेंगे कभी वो,
तलबगारों को तो खुदा भी मिला है'

इस शैर में शुतरगुरबा दोष है ।

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