मैना बैठी सोच रही है
पिंजरे के दिल में
मिल जाता है दाना पानी
जीवन जीने में आसानी
सुनती सबकी बात सयानी
फिर भी होती है हैरानी
मुझसे ज्यादा ख़ुश तो
चूहा है अपने बिल में
जब तक बोले मीठा-मीठा
सबको लगती है ये सीता
जैसे ही कहती कुछ अपना
सब कहते बस चुप ही रहना
अच्छी चिड़िया नहीं बोलती
ऐसे महफ़िल में
बहुत सलाखों से टकराई
पर पिंजरे से निकल न पाई
चला न कुछ भी जादू टोना
टूट गया है पंख सलोना
इतनी हिम्मत
जाने किसने भर दी बुजदिल में
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी, नवगीत की विवेचना और इस अपार स्नेह के लिए तह-ए-दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँ
विवश मनोदशा को जिस गहराई से महसूस कर नवगीत की रचना की गयी है कि शाब्दिक हुई सोच वर्ग निर्पेक्ष हुई समाज की आधी आबादी का प्रस्तुतीकरण हो गयी है. उन्मुक्त उड़ान तो अपने स्थान पर दायरे से बाहर निकलना तक मुहाल न हो तो मैना क्या कहे, क्या न कहे ?
मुझसे ज्यादा तो खुश तो
चूहा है अपने बिल में .. इन पंक्तियों की तासीर बहुत ही गहरी है. इसके लिए हार्दिक धन्यवाद.
नवगीत अपने कलेवर में है.
हार्दिक शुभकामनाएँ
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी
आ. भाई धर्मेंन्द्र जी, सादर अभिवादन। अच्छा नवगीत हुआ है। हार्दिक बधाई।
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