महाकवि कालिदास ने ‘मेघदूत ‘ खंड काव्य में दोहद’ शब्द का प्रयोग किया है -
रक्ताशोकश्चलकिसलय: केसरश्चात्र कान्त:
प्रत्यासन्नौ कुरबकवृतेर्माधवीमण्डपस्य।
एक: सख्यास्तव सह मया वामपादाभिलाषी
काङ्क्षत्वन्यो वदनमदिरां दोहदच्छद्मनास्या:।।
[उस क्रीड़ा-शैल में कुबरक…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 31, 2017 at 9:30pm — 5 Comments
महाकवि कालिदास ने मेघ का मार्ग अधिकाधिक प्रशस्त करने के ब्याज से प्रकृति के बड़े ही सूक्ष्म और मनोरम चित्र खींचे है, इन वर्णनों में कवि की उर्वर कल्पना के चूडांत निदर्शन विद्यमान है जैसे - हिमालय से उतरती गंगा के हिम-मार्ग में जंगली हवा चलने पर देवदारु के तनों से उत्पन्न अग्नि की चिंगारियों से चौरी गायों के झुलस गए पुच्छ-बाल और झर-झर जलते वनों का ताप शमन करने हेतु यक्ष द्वारा मेघ को यह सम्मति देना कि वह अपनी असंख्य जलधाराओं से वन और जीवों का संताप हरे .
मेघ को पथ निर्देश करता यक्ष…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 23, 2017 at 12:20pm — 4 Comments
आया फिर से सन्निकट दीप-पर्व अभिराम
बागी की शुभकामना सबके लिए प्रकाम
सबके लिय प्रकाम हर्ष वैभव हो भारी
अवध पधारे राम कहें राजेश कुमारी
कहते है गोपाल चतुर्दिक सौरभ छाया
नभ का तारक–माल उतर धरती पर आया
प्राची के मन में भरा है गहरा संताप
शरद--इंदु जी किसलिए है इतने चुपचाप
है इतने चुपचाप निशा तमसावृत काली
दूर् किये सब पाप मना हमने दीवाली
कहते है गोपाल बात शत-प्रतिशत साची
निज को रही संभाल प्रतीक्षारत है…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 18, 2017 at 10:30pm — 14 Comments
शापित यक्ष का इस प्रकार मान-मर्दन होने से उसकी महिमा घट गयी. अतः अपने निर्वासन का दंड भुगतने के लिए उसने अलकापुरी से दूर रामगिरि को अपना आश्रय स्थल बनाया. इस पर्वत पर भगवान राम ने अपने वनवास के कुछ दिन कभी काटे थे, इसीलिये वह पर्वत-प्रदेश रामगिरि कहलाता था . वहां जगजननी सीता के पवित्र स्नान कुंड थे . छायादार घने वृक्ष थे. यक्ष ने वहाँ के आश्रमों में बस्ती बनायी और प्रवास के दिन व्यतीत करने लगा. इस प्रकार प्रिया-संतप्त यक्ष ने किसी तरह आठ माह बिताये. ग्रीष्म ढल जाने पर आषाढ़ मास के पहले दिन…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 17, 2017 at 8:03pm — 9 Comments
विरहाकुल था दीन यक्ष उसको कुछ समझ नहीं आया
वारिवाह से गुह्य याचना ही करना उसको भाया
लोक-ख्यात पुष्कर-आवर्तक जलधर बड़े नाम वाले
उनके प्रिय वंशज हो तुम हे वारिवाह ! काले-काले
प्रकृति पुरुष तुम कामरूप तुम इन्द्रसखा तुमको जानूं
विधिवश प्रिय से हुआ दूर हूँ तुम्हे मीत हितकर मानूं
तुम यथार्थ परिजन्य मूर्त्त हो मैं…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 11, 2017 at 11:00am — 4 Comments
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