दर पे हमारे शाम इक इठला के रह गई
हमको तुम्हारी दास्ताँ याद आके रह गई
बहरोवज़न के खेल भी हमने समझ लिए
बन्दिश में आके शाइरी कुम्हलाके रह गई
होना था दिल के टूटने के बाद और क्या
ज़िदमें ही ज़ीस्त ख्वाबको झुठलाके रह गई
बेबस हुए कुछ इस तरह किस्मतके हाथ हम
तेरी निगाहेनाज़ भी समझा के रह गई
मुझको तिरी बेजारियों का कुछ गिला नहीं
मेरी भी ज़िंदगी अना दिखला के रह गई
गुंचे शगुफ्ता…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 29, 2012 at 10:00pm — 6 Comments
ऐसा लगता है कि इस ग़ज़ल की बह्र तरही मुशायरे २७ की ग़ज़ल की ही है. रदीफ़ तो वही है, पर काफिया अलग. मैंने शेर वज़न और बह्र में कहने की कोशिश तो की है, पर मेरे आलिम दोस्त ही बताएंगे कि मैं कोशिश में कितना कामयाब हुआ.
लम्हा-ए-दीदनी-ओ-नज़ारा-ए-पल गया
वो माह बनके अर्श पे आया निकल गया
गर्दूं में शब की चांदनी हौले से आ बसी
रोज़ेविसालेयार भी आखिर में ढल गया
मिटने लगे हैं फर्क अब दिन रात के सभी
मौसम हमारे शह्र का कितना बदल…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 29, 2012 at 9:43am — 2 Comments
निस्बतें यूँ बढ़ीं हमसे ज़माने की हौले हौले
खुलती गईं सब तहें अफ़साने की हौले हौले
हस्रतें मरने लगी हैं घर बसानेकी हौले हौले
कीमतें कुछ यूँ बढ़ीं आशियानेकी हौले हौले
बस्तियोंमें भी नशा-सा होने लगा है सरेशाम
दीवारें टूटने लगी हैं मयखाने की हौले हौले
फर्क मिट गए हस्पतालों और होटलोंके अब
सूरतें बदल गईं हैं शिफाखाने की हौले हौले
ये कोई प्यार नहीं हैकि दफअतन हो जाता
आदतें आईं दुनिया से निभाने की…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 26, 2012 at 8:42am — 6 Comments
न आइन्दा साथ जाए और न हाल साथ जाए
मैं जहां कहीं भी जाऊं तेरा ख्याल साथ जाए
न मग्रिबको देखता हूँ न मश्रिकको चाहता हूँ
न जनूब मेरी ज़मीं हो, न शिमाल साथ जाए
जो मज़ा है हमको तेरी फ़ुर्कत की सोजिशों में
वो मज़ा कहाँ मयस्सर जो विसाल साथ जाए
ये दुआ है मेरे दिल से कोई बद्दुआ न निकले
न कैदेहस्ती अजल हो कि मआल साथ जाए
चलो इल्तेफात टूटी और गिले भी ख़त्म सारे
न जवाब कोई बाकी और न सवाल साथजाए…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 23, 2012 at 4:36pm — 4 Comments
उम्र कब तलक गिराबांरेनफस को उठाती है
कमरेकी हवा भी अब खिड़कियों से जाती है
माहोसाल गुज़रे दिलके अंधेरों में रहते रहते
तारीकियोंसे भी अब कोई रौशनीसी आती है
तेरी चाहत हो गई बेजा किसी शगलकी तरह
सिगरेटकी आदत सी अब खुद को जलाती है
मुझमें भी हैं हसरतें इक आम इंसाँ की तरह
माना कि मैं एक बेमाया दिया हूँ पे बाती है
एक उज़लतअंगेज शाम तेरे गेसू में आ बसी
एक अल्साई सुबह तेरी आँखोंमें मुस्कुराती है…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 23, 2012 at 11:07am — 13 Comments
यूँ हो कर देखता हूँ बेबस मैं घर के जालों को
कि शर्म आ जाती है शहरों में गुम उजालों को
गरीबोगुरबा की तमकनत तो है बस आँखों में
जो देखके आ जाती है ऐवाँ में रहने वालों को
मैं शाइरोफलसफी हूँ, तसव्वुर ही काम है मेरा
मैं ख़्वाबोंके सीमाब पैरहन देता हूँ ख्यालों को
न दे मुझ को शराब न सही जो तेरी मरज़ी है
पे ये भी बतादे मैं क्या बोलूं सुबूओप्यालों को
ख्वाह न हो कोई जवाब न कोई हल इस हाल
ज़माना देखेगा…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 21, 2012 at 8:20pm — 6 Comments
दो कदम चलके रुक गए वो सफ़र क्या
जहां लौट के न जाया जाए वो घर क्या
जो नहो उसकी इनायत तो मुकद्दर क्या
कि बुरा क्या बद क्या और बदतर क्या
जो न जाए तेरे दरको वो राहगुज़र क्या
और जहां पड़े न तेरे कदम वो घर क्या
तेरे बगैर सल्तनत क्या दौलतोज़र क्या
जो नहुआ तेरा असीरेज़ुल्फ़ वो बशरक्या
देखती हैं यूँ हजारहा निगाहें शबोरोज़ हमें
जो दिल को न चीर जाए वो नज़र क्या
ज़िंदगी जिस तरहा हो…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 20, 2012 at 11:53pm — 4 Comments
हमने कब यह सोच कर लिखा कि जो लिखा वो कोई गज़ल है
चलनेवालेकी मंजिलपे नज़र है, नकि वो हवाओं में या पैदल है
अंदाज़ेतसव्वुर ने बदले हैं तरीकाए-तालीम-ओ-फहम दौरेके दौर
कल जोकोई होगा बढ़के असद वो आज फकत बाशक्लेहमल है
बंदिशेबह्र-ओ-रदीफ़ोकाफिए के बगैर भी हो सकते हैं कलामेपाक
अल्लाहने जो बनाई है ये कायनात वो इक वाहिद सौतेअज़ल है
शह्रमें होती हैं बसाहटें मकानोकस्बाओबाजारोशाहराह, क्याक्या
पे जाँ पे दिललगे मेरा वो…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 20, 2012 at 6:00pm — 9 Comments
(अंग्रेज़ी की डायरी से हिन्दी में अनूदित)
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मेरी पत्नी,
प्रेम सदैव हमारे अंदर है, अपनी गहराई में, बाहर नहीं. ‘मैं’ द्वारा इस तथ्य को आत्मसात कर लिए जाने तक कि यह ‘मैं’ स्वयं भी इस आतंरिक प्रेम से बाह्य है, यह प्रेम अपने से बाहर नाना रूपों में अभिव्यक्ति की खोज में प्रयत्नशील बना रहता है. जब ‘मैं’ द्रवीभूत और अनन्य हो जाता है, इसके साथ ही वो सब कुछ जो इस ‘मैं’ से बाहर परिलक्षित है. तब प्यार के अतिरिक्त कुछ भी शेष…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 19, 2012 at 10:44am — 2 Comments
मर्गोजीस्त के राज़ मेरे सीने में कैद हैं
हम बग़दाद के नहीं, हिन्द के जुनैद हैं
खुशी होती तो मर न गए होते कब के
जीरहें है कि गममें मुब्तलाओमुस्तैद हैं
दिल कोई तिफ्लहै पूछे है तेरी तस्वीरसे
इक मुझ को ही तेरे दीदार क्यूँ नापैद हैं
रोज़ेकारेमाशी शामेमैकशी शबेख्वाबीदगी
न जाने हम कबसे बामशक्कत बाकैद हैं
'राज़' की उम्र हुई है, पे अन्वार बाकी है
जुज़ आँखकी पुतली सारे उज़व सुफैदहैं
©…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 18, 2012 at 10:31pm — 8 Comments
जिन्दगी थोड़ी बाकी थीकि गुज़र गई
नदी समन्दर के पास आकर मर गई
रात आईतो इमरोज़ किधर चला गया
दिन निकला तो लंबी रात किधर गई
आज यूँ अकेला हूँ मैं अपनों के बीच
इक भीड़ में मेरी तन्हाई भी घर गई
दरोदीवार पुतगए बरसातकी सीलनसे
अबके बरस छत की कलई उतर गई
जो लोग तेज थे उठा लेगए सब ईंटें
दीवार खामोश अपने कदसे उतर गई
हवाओंने गिराए जो पके फल धम्मसे
इक अकेली चिड़िया शाख पे डर गई…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 17, 2012 at 11:43pm — 18 Comments
क्या अदा वो खामुशीसे हर ख्याल पूछे है
इक नज़रसे ही सारे दिल का हाल पूछे है
राहगीरोंको भी खबर कुछहै हमारे इश्ककी
वरना, क्या थी रकीब की मजाल, पूछे है
वो समझ पाता जो खुद राज़ वा करनारहे
है बहुत आसाँ कि सवालपे सवाल पूछे है
हो गुरूर हुस्नपे पे इतना नहींकि एकदिन
जाती बहारसे पतझड़ उसका ज़वाल पूछेहै
रोज़ तुलूअ होना और फिर गुरूब होजाना
आफ्ताबोमेह्र देखके तू क्या कमाल पूछे है…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 17, 2012 at 8:30pm — No Comments
तेरे बगैर मज़ाभी क्या आये जीने का
शराब न हो तो क्या हो आबगीने का
तेरी ज़ुल्फ़से दोचार नफ्स मांग लेतेहैं
तेरेही इश्कने काम बढ़ाया है सीने का
तू नमाज़ी है तो पाबन्द है औकातका
मैं खराबाती हूँ कोई वक्त नहीं पीनेका
नतुम न दरियएइश्क पार करनेको है
नाखुदा है खुदा काम क्या सफीने का
राज़ ज़रा संभल के खर्च करो मआश
अभीतो पूरा महीना पड़ा है महीने का
© राज़…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 11, 2012 at 7:45am — 6 Comments
राज़ नवादवी: मेरी बेटियों की जोड़ी को एक पत्र
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मेरी प्यारी बेटियों साशा और नाना,
मुझे आप दोनों की दुनियावी तकलीफों और दर्द के बारे में जानकार बहुत दुःख है. मुझे ऐसा लगता है कि घर से मेरा मुसलसल (लगातार) दूर रहना भी इनकी एक वजह है, मगर शायद फिलहाल मेरी ज़िंदगी कुछ ऐसी है कि इसमें जुदाई और फुर्कत (विरह) का साथ अभी और बाकी है.
मेरी दरख्वास्त है कि कभी अपना हौसला मत खोना क्यूंकि…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 9, 2012 at 2:03pm — No Comments
राज़ नवादवी: मेरी बेटियों की जोड़ी को एक पत्र
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मेरी प्यारी बेटियों साशा और नाना,
मुझे आप दोनों की दुनियावी तकलीफों और दर्द के बारे में जानकार बहुत दुःख है. मुझे ऐसा लगता है कि घर से मेरा मुसलसल (लगातार) दूर रहना भी इनकी एक वजह है, मगर शायद फिलहाल मेरी ज़िंदगी कुछ ऐसी है कि इसमें जुदाई और फुर्कत (विरह) का साथ अभी और बाकी है.
मेरी दरख्वास्त है कि कभी अपना हौसला मत खोना क्यूंकि…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 9, 2012 at 2:03pm — 4 Comments
न होता परवाना तो जलके शरार क्या होता
न होती शम्मा तो फिर जाँनिसार क्या होता
तेरे हाथों मेरा रेज़एइश्क नागवार क्या होता
अगर उड़ता नहीं हवाओं में गुबार क्या होता
वफाशनास कब हुआ है हुस्न आप ही बोलो
अगर जो होता वो वैसा तो प्यार क्या होता
मुझे यकीन है वादों पे कि ये मेरी चाहत है
जोहोता न खुदपे तो तेरा ऐतेबार क्या होता
लिखी जाती कहानियां हमारी भी हाशिए पर
मैं तेरे चाहने वालोंमें होके शुमार क्या…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 8, 2012 at 3:54pm — No Comments
सर्द सी सुबह और बेरंग सा आसमान. तेज़ बहती हवा और नशे में झूमते से दरख्तोशज़र. चौथी मंज़िल पे मेरा एक अकेला कमरा. बड़ा सा और खाली खाली. सलवटों से भरा बिस्तर, सिकुड़े सहमे से तकिए, किसी नाज़नीन के आँचल सा लहरा के लरज़ता हुआ लेटा कम्बल. सोफे पे रखा शिफर (शून्य) में ताकता खाली ट्रवेल बैग. पति-पत्नी-से अकुला के अगल-बगल मेज़ पे पड़े जिभ्भी (टंग क्लीनर) और टुथ ब्रश- किसी साहूकार के पेट सा फूला टूथपेस्ट... तो किसी गरीब की आंत सा सिकुड़ा मेरे शेविंग क्रीम का ट्यूब. दरवाज़े और दरीचों को बामुश्किल ढँक…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 6, 2012 at 8:56am — 3 Comments
मुद्दत हो गई है कुछ भी लिखे, इक अधूरापन समा गया हो जैसे मेरे अन्दर, और गोया ये अधूरापन अपने अधूरेपन के अधूरेपन में ही मुतमईन हो. भोपाल से सफर पे आमादा हुए तीन हफ्ते गुज़र गए हैं और इन तीन हफ़्तों में कई मंज़िलात से गुज़रा- इंदौर-बैंगलोर-चेन्नई-बैंगलोर-मैसूर-बैंगलोर-चेन्नई- और फिर वापस बैंगलोर. आगे आने वाले दिनों में और भी कई जगहों का कयाम करना है- अहमदाबाद, पुणे, नॉएडा, जयपुर.... कभी हवा में थम से गए हवाई जहाज़, कभी लोहे की पटरियों पे दौड़ती रेल, कभी फर्राटे से भागती कार, तो कभी वोल्वो बस की…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 1, 2012 at 5:30pm — 6 Comments
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