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राज़ नवादवी's Blog – September 2012 Archive (18)

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३७ (बन्दिश में आके शाइरी कुम्हलाके रह गई )

 

दर पे हमारे शाम इक इठला के रह गई

हमको तुम्हारी दास्ताँ याद आके रह गई

 

बहरोवज़न के खेल भी हमने समझ लिए

बन्दिश में आके शाइरी कुम्हलाके रह गई

 

होना था दिल के टूटने के बाद और क्या

ज़िदमें ही ज़ीस्त ख्वाबको झुठलाके रह गई

 

बेबस हुए कुछ इस तरह किस्मतके हाथ हम

तेरी निगाहेनाज़ भी समझा के रह गई

 

मुझको तिरी बेजारियों का कुछ गिला नहीं

मेरी भी ज़िंदगी अना दिखला के रह गई  

 

गुंचे शगुफ्ता…

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Added by राज़ नवादवी on September 29, 2012 at 10:00pm — 6 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३६ (साबुन की तरह इश्क भी इकरोज़ गल गया)

ऐसा लगता है कि इस ग़ज़ल की बह्र तरही मुशायरे २७ की ग़ज़ल की ही है. रदीफ़ तो वही है, पर काफिया अलग. मैंने शेर वज़न और बह्र में कहने की कोशिश तो की है, पर मेरे आलिम दोस्त ही बताएंगे कि मैं कोशिश में कितना कामयाब हुआ.

 

लम्हा-ए-दीदनी-ओ-नज़ारा-ए-पल गया

वो माह बनके अर्श पे आया निकल गया

 

गर्दूं में शब की चांदनी हौले से आ बसी

रोज़ेविसालेयार भी आखिर में ढल गया

 

मिटने लगे हैं फर्क अब दिन रात के सभी

मौसम हमारे शह्र का कितना बदल…

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Added by राज़ नवादवी on September 29, 2012 at 9:43am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३५ (हस्रतें मरने लगी हैं घर बसानेकी हौले हौले)

निस्बतें यूँ बढ़ीं हमसे ज़माने की हौले हौले

खुलती गईं सब तहें अफ़साने की हौले हौले

 

हस्रतें मरने लगी हैं घर बसानेकी हौले हौले

कीमतें कुछ यूँ बढ़ीं आशियानेकी हौले हौले

 

बस्तियोंमें भी नशा-सा होने लगा है सरेशाम

दीवारें टूटने लगी हैं मयखाने की हौले हौले

 

फर्क मिट गए हस्पतालों और होटलोंके अब

सूरतें बदल गईं हैं शिफाखाने की हौले हौले

 

ये कोई प्यार नहीं हैकि दफअतन हो जाता

आदतें आईं दुनिया से निभाने की…

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Added by राज़ नवादवी on September 26, 2012 at 8:42am — 6 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३४ (न आइन्दा साथ जाए और न हाल साथ जाए )

न आइन्दा साथ जाए और न हाल साथ जाए

मैं जहां कहीं भी जाऊं तेरा ख्याल साथ जाए

 

न मग्रिबको देखता हूँ न मश्रिकको चाहता हूँ

न जनूब मेरी ज़मीं हो, न शिमाल साथ जाए

 

जो मज़ा है हमको तेरी फ़ुर्कत की सोजिशों में

वो मज़ा कहाँ मयस्सर जो विसाल साथ जाए

 

ये दुआ है मेरे दिल से कोई बद्दुआ न निकले

न कैदेहस्ती अजल हो कि मआल साथ जाए 

 

चलो इल्तेफात टूटी और गिले भी ख़त्म सारे

न जवाब कोई बाकी और न सवाल साथजाए…

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Added by राज़ नवादवी on September 23, 2012 at 4:36pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३३ (सिगरेटकी आदत सी अब खुद को जलाती है)

उम्र कब तलक गिराबांरेनफस को उठाती है

कमरेकी हवा भी अब खिड़कियों से जाती है 

 

माहोसाल गुज़रे दिलके अंधेरों में रहते रहते

तारीकियोंसे भी अब कोई रौशनीसी आती है 

 

तेरी चाहत हो गई बेजा किसी शगलकी तरह

सिगरेटकी आदत सी अब खुद को जलाती है

 

मुझमें भी हैं हसरतें इक आम इंसाँ की तरह

माना कि मैं एक बेमाया दिया हूँ पे बाती है

 

एक उज़लतअंगेज शाम तेरे गेसू में आ बसी  

एक अल्साई सुबह तेरी आँखोंमें मुस्कुराती है…

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Added by राज़ नवादवी on September 23, 2012 at 11:07am — 13 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३२ (यूँ हो कर देखता हूँ बेबस मैं घर के जालों को )

यूँ हो कर देखता हूँ बेबस मैं घर के जालों को

कि शर्म आ जाती है शहरों में गुम उजालों को

 

गरीबोगुरबा की तमकनत तो है बस आँखों में

जो देखके आ जाती है ऐवाँ में रहने वालों को

 

मैं शाइरोफलसफी हूँ, तसव्वुर ही काम है मेरा

मैं ख़्वाबोंके सीमाब पैरहन देता हूँ ख्यालों को  

 

न दे मुझ को शराब न सही जो तेरी मरज़ी है

पे ये भी बतादे मैं क्या बोलूं सुबूओप्यालों को 

 

ख्वाह न हो कोई जवाब न कोई हल इस हाल

ज़माना देखेगा…

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Added by राज़ नवादवी on September 21, 2012 at 8:20pm — 6 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३१ (गुफ्तगूबराएऔरतको ज़मीनोबहर क्या)

दो कदम चलके रुक गए वो सफ़र क्या

जहां लौट के न जाया जाए वो घर क्या

 

जो नहो उसकी इनायत तो मुकद्दर क्या

कि बुरा क्या बद क्या और बदतर क्या

 

जो न जाए तेरे दरको वो राहगुज़र क्या

और जहां पड़े न तेरे कदम वो घर क्या

 

तेरे बगैर सल्तनत क्या दौलतोज़र क्या

जो नहुआ तेरा असीरेज़ुल्फ़ वो बशरक्या

 

देखती हैं यूँ हजारहा निगाहें शबोरोज़ हमें  

जो दिल को न चीर जाए वो नज़र क्या

 

ज़िंदगी जिस तरहा हो…

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Added by राज़ नवादवी on September 20, 2012 at 11:53pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३० (हमने कब यह सोच कर लिखा कि जो लिखा वो कोई गज़ल है)

हमने कब यह सोच कर लिखा कि जो लिखा वो कोई गज़ल है

चलनेवालेकी मंजिलपे नज़र है, नकि वो हवाओं में या पैदल है

 

अंदाज़ेतसव्वुर ने बदले हैं तरीकाए-तालीम-ओ-फहम दौरेके दौर  

कल जोकोई होगा बढ़के असद वो आज फकत बाशक्लेहमल है

 

बंदिशेबह्र-ओ-रदीफ़ोकाफिए के बगैर भी हो सकते हैं कलामेपाक

अल्लाहने जो बनाई है ये कायनात वो इक वाहिद सौतेअज़ल है   

 

शह्रमें होती हैं बसाहटें मकानोकस्बाओबाजारोशाहराह, क्याक्या

पे जाँ पे दिललगे मेरा वो…

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Added by राज़ नवादवी on September 20, 2012 at 6:00pm — 9 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३८ (मेरी पत्नी)

(अंग्रेज़ी की डायरी से हिन्दी में अनूदित)

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मेरी पत्नी,

 

प्रेम सदैव हमारे अंदर है, अपनी गहराई में, बाहर नहीं. ‘मैं’ द्वारा इस तथ्य को आत्मसात कर लिए जाने  तक कि यह ‘मैं’ स्वयं भी इस आतंरिक प्रेम से बाह्य है, यह प्रेम अपने से बाहर नाना रूपों में अभिव्यक्ति की खोज में प्रयत्नशील बना रहता है. जब ‘मैं’ द्रवीभूत और अनन्य हो जाता है, इसके साथ ही वो सब कुछ जो इस ‘मैं’ से बाहर परिलक्षित है. तब प्यार के अतिरिक्त कुछ भी शेष…

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Added by राज़ नवादवी on September 19, 2012 at 10:44am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २९ (हम बग़दाद के नहीं, हिन्द के जुनैद हैं)

मर्गोजीस्त के राज़ मेरे सीने में कैद हैं

हम बग़दाद के नहीं, हिन्द के जुनैद हैं

 

खुशी होती तो मर न गए होते कब के

जीरहें है कि गममें मुब्तलाओमुस्तैद हैं   

 

दिल कोई तिफ्लहै पूछे है तेरी तस्वीरसे

इक मुझ को ही तेरे दीदार क्यूँ नापैद हैं  

 

रोज़ेकारेमाशी शामेमैकशी शबेख्वाबीदगी 

न जाने हम कबसे बामशक्कत बाकैद हैं

 

'राज़' की उम्र हुई है, पे अन्वार बाकी है

जुज़ आँखकी पुतली सारे उज़व सुफैदहैं

 

©…

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Added by राज़ नवादवी on September 18, 2012 at 10:31pm — 8 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २८

जिन्दगी थोड़ी बाकी थीकि गुज़र गई

नदी समन्दर के पास आकर मर गई

 

रात आईतो इमरोज़ किधर चला गया

दिन निकला तो लंबी रात किधर गई

 

आज यूँ अकेला हूँ मैं अपनों के बीच

इक भीड़ में मेरी तन्हाई भी घर गई

 

दरोदीवार पुतगए बरसातकी सीलनसे

अबके बरस छत की कलई उतर गई

 

जो लोग तेज थे उठा लेगए सब ईंटें

दीवार खामोश अपने कदसे उतर गई  

 

हवाओंने गिराए जो पके फल धम्मसे

इक अकेली चिड़िया शाख पे डर गई…

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Added by राज़ नवादवी on September 17, 2012 at 11:43pm — 18 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २७

क्या अदा वो खामुशीसे हर ख्याल पूछे है

इक नज़रसे ही सारे दिल का हाल पूछे है

 

राहगीरोंको भी खबर कुछहै हमारे इश्ककी

वरना, क्या थी रकीब की मजाल, पूछे है

 

वो समझ पाता जो खुद राज़ वा करनारहे

है बहुत आसाँ कि सवालपे सवाल पूछे है   

 

हो गुरूर हुस्नपे पे इतना नहींकि एकदिन

जाती बहारसे पतझड़ उसका ज़वाल पूछेहै  

 

रोज़ तुलूअ होना और फिर गुरूब होजाना

आफ्ताबोमेह्र देखके तू क्या कमाल पूछे है…

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Added by राज़ नवादवी on September 17, 2012 at 8:30pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २६

तेरे बगैर मज़ाभी क्या आये जीने का

शराब न हो तो क्या हो आबगीने का

 

तेरी ज़ुल्फ़से दोचार नफ्स मांग लेतेहैं

तेरेही इश्कने काम बढ़ाया है सीने का   

 

तू नमाज़ी है तो पाबन्द है औकातका

मैं खराबाती हूँ कोई वक्त नहीं पीनेका

 

नतुम न दरियएइश्क पार करनेको है

नाखुदा है खुदा काम क्या सफीने का

        

राज़ ज़रा संभल के खर्च करो मआश

अभीतो पूरा महीना पड़ा है महीने का    

 

© राज़…

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Added by राज़ नवादवी on September 11, 2012 at 7:45am — 6 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३७ (मेरी बेटियों की जोड़ी को लिखा एक पत्र )

राज़ नवादवी: मेरी बेटियों की जोड़ी को एक पत्र

-------------------------------------------------- -----------

 

मेरी प्यारी बेटियों साशा और नाना,

 

मुझे आप दोनों की दुनियावी तकलीफों और दर्द के बारे में जानकार बहुत दुःख है. मुझे ऐसा लगता है कि घर से मेरा मुसलसल (लगातार) दूर रहना भी इनकी एक वजह है, मगर शायद फिलहाल मेरी ज़िंदगी कुछ ऐसी है कि इसमें जुदाई और फुर्कत (विरह) का साथ अभी और बाकी है.

 

मेरी दरख्वास्त है कि कभी अपना हौसला मत खोना क्यूंकि…

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Added by राज़ नवादवी on September 9, 2012 at 2:03pm — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३७ (मेरी बेटियों की जोड़ी को लिखा एक पत्र )

राज़ नवादवी: मेरी बेटियों की जोड़ी को एक पत्र

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मेरी प्यारी बेटियों साशा और नाना,

 

मुझे आप दोनों की दुनियावी तकलीफों और दर्द के बारे में जानकार बहुत दुःख है. मुझे ऐसा लगता है कि घर से मेरा मुसलसल (लगातार) दूर रहना भी इनकी एक वजह है, मगर शायद फिलहाल मेरी ज़िंदगी कुछ ऐसी है कि इसमें जुदाई और फुर्कत (विरह) का साथ अभी और बाकी है.

 

मेरी दरख्वास्त है कि कभी अपना हौसला मत खोना क्यूंकि…

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Added by राज़ नवादवी on September 9, 2012 at 2:03pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २५

न होता परवाना तो जलके शरार क्या होता

न होती शम्मा तो फिर जाँनिसार क्या होता

 

तेरे हाथों मेरा रेज़एइश्क नागवार क्या होता

अगर उड़ता नहीं हवाओं में गुबार क्या होता

 

वफाशनास कब हुआ है हुस्न आप ही बोलो

अगर जो होता वो वैसा तो प्यार क्या होता

 

मुझे यकीन है वादों पे कि ये मेरी चाहत है

जोहोता न खुदपे तो तेरा ऐतेबार क्या होता

 

लिखी जाती कहानियां हमारी भी हाशिए पर  

मैं तेरे चाहने वालोंमें होके शुमार क्या…

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Added by राज़ नवादवी on September 8, 2012 at 3:54pm — No Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३६

सर्द सी सुबह और बेरंग सा आसमान. तेज़ बहती हवा और नशे में झूमते से दरख्तोशज़र. चौथी मंज़िल पे मेरा एक अकेला कमरा. बड़ा सा और खाली खाली. सलवटों से भरा बिस्तर, सिकुड़े सहमे से तकिए, किसी नाज़नीन के आँचल सा लहरा के लरज़ता हुआ लेटा कम्बल. सोफे पे रखा शिफर (शून्य) में ताकता खाली ट्रवेल बैग. पति-पत्नी-से अकुला के अगल-बगल मेज़ पे पड़े जिभ्भी (टंग क्लीनर) और टुथ ब्रश- किसी साहूकार के पेट सा फूला टूथपेस्ट... तो किसी गरीब की आंत सा सिकुड़ा मेरे शेविंग क्रीम का ट्यूब. दरवाज़े और दरीचों को बामुश्किल ढँक…

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Added by राज़ नवादवी on September 6, 2012 at 8:56am — 3 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३५

मुद्दत हो गई है कुछ भी लिखे, इक अधूरापन समा गया हो जैसे मेरे अन्दर, और गोया ये अधूरापन अपने अधूरेपन के अधूरेपन में ही मुतमईन हो. भोपाल से सफर पे आमादा हुए तीन हफ्ते गुज़र गए हैं और इन तीन हफ़्तों में कई मंज़िलात से गुज़रा- इंदौर-बैंगलोर-चेन्नई-बैंगलोर-मैसूर-बैंगलोर-चेन्नई- और फिर वापस बैंगलोर. आगे आने वाले दिनों में और भी कई जगहों का कयाम करना है- अहमदाबाद, पुणे, नॉएडा, जयपुर.... कभी हवा में थम से गए हवाई जहाज़, कभी लोहे की पटरियों पे दौड़ती रेल, कभी फर्राटे से भागती कार, तो कभी वोल्वो बस की…

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Added by राज़ नवादवी on September 1, 2012 at 5:30pm — 6 Comments

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