ऐसा लगता है कि इस ग़ज़ल की बह्र तरही मुशायरे २७ की ग़ज़ल की ही है. रदीफ़ तो वही है, पर काफिया अलग. मैंने शेर वज़न और बह्र में कहने की कोशिश तो की है, पर मेरे आलिम दोस्त ही बताएंगे कि मैं कोशिश में कितना कामयाब हुआ.
लम्हा-ए-दीदनी-ओ-नज़ारा-ए-पल गया
वो माह बनके अर्श पे आया निकल गया
गर्दूं में शब की चांदनी हौले से आ बसी
रोज़ेविसालेयार भी आखिर में ढल गया
मिटने लगे हैं फर्क अब दिन रात के सभी
मौसम हमारे शह्र का कितना बदल गया
हस्ती कोई ख्याल थी लम्हे में वा हुई
कागज़ सा कोई ख़ाब था इक लौ से जल गया
सच्चाइयां पहाड़ सी आईं लबेनिगाह
सपनों को कोई देवता जैसे निगल गया
मिट्टी की तरह हसरतें पानी में बह गईं
साबुन की तरह इश्क भी इकरोज़ गल गया
होती थी तेरे फ़िक्र से गर्मी मिजाज़ को
यख का कोई पहाड़ था ये दिल पिघल गया
हासिल हुईं सब नेमतें अल्लाह की हमें
मिटना था तेरे इश्क में लेकिन संभल गया
झूठी तसल्लियों से गुज़ारा करें क्या राज़
उनके मरीज़े इश्कका कब दिल बहल गया
© राज़ नवादवी
अहमदाबाद, प्रातःकाल ०९.३२, २९/०९/२०१२
लम्हा-ए-दीदनी-ओ-नज़ारा-ए-पल- देखने योग्य क्षण और क्षण भर का दृश्य; माह- चाँद; अर्श- आसमान; गर्दूं- आकाश; शब- रात; रोज़ेविसालेयार- प्रियतम से मिलाने का दिन; वा हुई – खुली, प्रकट हुई; लबेनिगाह- दृष्टि में; यख- बर्फ; नेमतें- कृपाएं, फैज़, अनुकम्पा में दी गईं चीज़ें
Comment
आदरणीया राजेश जी, आपका तहेदिल से शुक्रिया. शिल्पगत त्रुटियों पे काम का जारी है. आप सुधीजनों की प्रतिक्रियाएं अवश्य रंग लाएगी.
'कब तलक पसे हिजाब वो मुंह छुपाएगी
ज़िंदगी इक रोज़ अपना चेहरा दिखाएगी'.
ओबीओ की कार्यकारिणी में आपके सम्मिलित किए जाने की खबर पढ़कर दिल को बहुट सुकून मिला. आपके मार्गदर्शन में इस प्रयास के और नई उचाईयों तक पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त हुआ. आपको हार्दिक बधाई!
- राज़
राज नवद्वी जी बहुत उम्दा ग़ज़ल लिखी है आपने किन्तु कुछ शेरों में मात्राएँ मुझे गड़बड़ लग रही हैं जैसे की २७ की ग़ज़ल में बहर वज्न में २२ मात्राएँ हर पंक्ति में हैं उसी के अनुसार कह रही हूँ या किसी पंक्ति में किसी वर्ण को दो से ज्यादा बार गिराया जा सकता है ये दिग्गज लोग ही बताएँगे क्यूंकि मैं भी तिलकराज जी की कक्षा की स्टुडेंट ही हूँ
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